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(१५) शी ॥ रुजदत्तनी सुणी वाणी, तदा बानो रह्यो ॥पा बो श्रदर एक, फरीने नवि कह्यो । बालोचे मन मांहि, उपाय को करूं ॥ कपटे पण सार्थेश तणी पुत्री वरं ॥१॥ जो इण अवसर माहरी, बुद्धि न केखq ॥ तो पड़े श्रावशे काम, कहे बल खेलतुं ॥ मित्र थकी तो एह, कारज नवी उघडे ॥ तो निः खारथ कोण, पूठ एहना पडे ॥५॥हु हवं माह रीमेले, प्रपंच करुं वही ॥ पण ऋषिदत्ता एह, वरेवी में सही ॥ निर्गत जे गजदंत, फरी पेसे नहीं ॥ के की पी सुरंग,मटे नही लोकहिं ॥३॥ उद्यम वि ण ए काम, किसी परें सीऊशे ॥ नारी होशे कंब ल, जेम जलें जीजशे॥रण धण कण गुणमाट, विलंब न कीजीये ॥ लासर नाखी वात, तेणे न पतीजीयें ॥४॥ ए जिनधर्म श्रावक, केरी बालिका ॥ एह ना जिननी वाणी, तणी प्रतिपालिका ॥ हूं तो श्राव क धर्मनो, मर्म जाणुं नहीं ॥ मन तो वरवा काज, रघु ने उम्मही ॥५॥ तेमाटे हवे साधु, समी जाश्ने॥ शीखू गृहस्थ श्राचार, के उद्यम लाग्ने ॥ पडे शषिदत्ता तात, तणे संगें रखें ॥ जोगवी कन्या तास, वरी वांडित लहुँ ॥६॥ उठ्यो करी आलोच,
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