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________________ ( १६३) ही कहुं तुज ॥ तु० ॥ ११॥ दीठे मारग सीधा चा लीयें, तो कुण दूहवे एम ॥ मान्युं धनदत्ते कयु वि प्रनु, चाल्या आगल जेम ॥ तु ॥ १२॥ श्राव्या को पुरवर परिसरें, दीतुं सरोवर एक ॥ रजक नि हाल्यो वस्त्र तिहां धोवतां, धनदत्त चिंते विवेक ॥ तु०॥ १३ ॥ हलूए हळूए सरोवर संचस्यो, केडे रह्यो कांश विप्र ॥ दीगो रजकें धनदत्त श्रावतो, साह मो दोड्यो जी क्षिप्र ॥ तु० ॥ १४ ॥ पकड्यो रजके धनदत्तने, तथा रजक कहे मुख एम ॥ दिवस घणा नो करतो तस्करी, पकडयो जाश्श केम ॥ तु॥१५॥ काले ले गयो वस्त्रनी ग्रंथिका, वली तुं आव्यो ने आज ॥ चोरनुं वितक तुऊने विताडद्यु, वलशे त्यारे तुऊ लाज ॥तुगार॥ रजकवचनें धनदत्त चिंतवे, हूं कुण चोर ले कुण ॥ मोहनविजयें ढाल चोपन्नमी, पत्नणी परम अनूण ॥ तु ॥ १७ ॥ सर्व गाथा. ॥ दोहा ॥ रे रजक कुंण चोर , माहरूं धनदत्तनाम ॥ नग री विशालायें रहुं, व्यापारी अनिराम ॥ १॥ दैव वशे शहां हुँ थावियो, अणबोल्यो श्ण गम ॥ मित्र महोदय कथनथी, कीधां सवि आयाम ॥॥ विप्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003683
Book TitleNarmada Sundarino Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages198
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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