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॥दोहा॥ ॥ जणे कुमर क्षीणोदरी, मामी कहे तुंवात ॥ जगर वदने किम पमी, राखीतीचटवात ॥ १ कहे कु मरी हुं नवि लहुँ, अजगर वदन प्रवेश ॥सुणो कठि ण थइ जे कहुं, अवर वात लवलेश ॥२॥ तेहवा मां पग रख थकी, जाण्यो जन संचार ॥ कुमर विचारे रातमां, केहनो एह विहार ॥३॥ आवे जे साहमो धस्यो, रसीयो के खूटाक ॥ व्यसनी मद पीधो अडे, के कोजार लमाक॥४॥के को परिचित नारिनो, आवे बेणि वाट ।। मीट न पाहुँगोरमी, ए अवसर ते माट ॥५॥ एम विचारी शिर थकी, काढी गुटिका टाख ॥ श्रांबानां रसमां घसी, कडे तिलक तस जाल ॥६॥ पुरुष थयो नारि टली, कुमर कहे मत शंक॥ रूप पालटयुं तुज में, श्रावत नर श्राशंक ॥ ७॥ज्यां नहिं मांजु थूकथी, त्यां लगें तुज नर रूप ॥ पुरुष ग या मांज्या पली, थाशे मूल सरूप ॥ ७॥ आपण में ए एक डे, सुखें पधारो श्रांहिं ॥ईम कही निरखत वाटमी, दीठी नारी त्यांहिं॥ ए॥ तरुणी हरिणी परें धसी, श्रावे थिरकित गात ॥ नृप नंदन मधुरे स्वरें, पूढे तस थवदात ॥ १० ॥
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