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(०१)
परमाण ॥ दल सज की धुं तांवली, बोल्यो दरखें रा ष ॥ ज० ॥ १७ ॥ लखमी पूंज मनोहरू, सुत क्यो साधें हार ॥ कुमर कहे ते हारनी, वात सुणो निर धार ॥ ज० ॥ १८ ॥ सूतां मुज निशिनें समें, करें उ पद्रव कोइ ॥ वस्त्र शस्त्र भूषण हरे, गुप्त बीहावें सोइ ॥ ज० ॥ १७ ॥ मात कनेथी में ग्रही, हार व्यो मुज कं व ॥ श्राज रयणमां अपहरी, लीधो तेणे उल्लंग || ज० ॥ २० ॥ हार गयो जाणी हवे, माता धारे दुःरक ॥ करी प्रतिज्ञा में तिहां, माताने । नमुरख ॥ ज० ॥ २१ ॥ जो नापुं दिन पांचमां, ते मुत्तावली हार ॥ तो मुज काया यागमां, दद्देवी ए निरधार ॥ ज० ॥ २२ ॥ हार कदापि नवि लहूं, तो मुज मरण सहाय ॥ करे प्र तिज्ञा करी, दुःख धरती इंम माय ॥ ज० ॥ २३ ॥ अदृश नये जे रातिमां, राक्षस के चूमेल । पोहोर एक बे रही हां, नाखुं तस पग जेल ॥ ज० ॥ २४ ॥ स्ववश करी तेह दुष्टनें, लेई हार जलिनांति ॥ सुंपी माताने पढें, चालीश पाबली राति ॥ ज० ॥ २५ ॥ राय प्रशंसे पुत्रनां, साहस सत्त्व विशाल ॥ बीजे खंमें ए कही, कांतें चोथी ढाल ॥ ज० ॥ २६ ॥
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