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पं ॥ सा० ॥ कांति कहे रस पोष ॥ सा० ॥ १७ ॥
सुणतां दुवे रेहां, अध्यातम
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॥ दोहा ॥
॥ डुविदा शिक्षा पालतां, बिहुं जण तप जप ली न ॥ कहे विहार महीतलें, थया सुगुरु आधीन ॥ १ ॥ गुरु प्रादेशें बिहुं जणां, ज नंदननें पास ॥ वारे व्यसनथकी सदा, श्री जिनधर्म प्रकाश ॥ २ ॥ आप कृतारथ मानता, बे बांधव नृप पूत ॥ मांहो मांहि सुशीखथी, थया नेह संजुत्त ॥ ३ ॥ विदुनी श्री जिन धर्मयी, जेदी साते धात ॥ बीजानें पण शीखवे, मा रंग ते अवदात ॥ ४ ॥ राजऋषि मढ़वल हवे, वढेतो व्रत सिधार ॥ श्रागमविद गीतार्थमां, दु शिरोमणि सार ॥ ५ ॥ एकाकी विचरण जणी, मार्गी गुरु या देश | कुरकी संबल महामुनि, विचरे देश विदेश ॥ ६ ॥ ॥ ढाल बत्री शमी ॥ रमतां फाटो घाघरो रे । ए देशी ॥ ॥ उपशमधर मुनि सेहरो रे, सुरगिरि थिर परें चि त रे राजे ॥ सौम्यें रे जेह यागें पूरण चंद्रमा रे ला जे ॥ १ ॥ सर्व सहे वसुधा समोरे, प्रतिहत वा युनें रे तोलें ॥ जे रे परिसदथी जेहवो केसरी अ मोनें ॥ २ ॥ आलंबन हे नहीं
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