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(२०७) नो॥श्रावे विस्मय देखी बाला, करपद यादें सकल चवाला ॥ लावण्य निधि एकुण केम मीने, मूकीम का राय नगीनें ॥ जी०॥ ५॥ जोतो फिरि फिरि नेहथी रे, मच गयो कुंण हेतो॥ एहज महिला बता रे, कहेशे सवि संकेतो॥कहेशेस वि निज वीतक वातें, नक चक्रनां व्रण जुन गातें॥ए अहिनाणे सिंधुवगाही, जमीय घणुं दीसे जलमांही जी॥६॥ कोपवरों को वयरीये रे, नाखी सायर पूरे ॥ के प्रवहण नांगे पनी रे, मछवांसे किहां रें ॥ मलवांसें बेठी इहां श्रावी, श्म कहेतो नृप पूछे मनावी ॥सागर तिलक पुरीनो नायक, कंजप नामें अवं खल घायक ॥ जी ॥७॥ निज वीतक कहेतां हवे रे, सुंदरी काश्म बीहे ॥कुं ण तु किम मीनें धरी रे,आफलती फुःख दी।आ फलती आवी पुर एणे, हर्ष सही रमणी नृप वयणे॥ चिंते मुज सुत रहस्ये बिपावी, राख्यो डे ते पुरी हूं श्रावी ॥जी॥ ७ ॥ सुकृत महाफल पाकियुं रे, मु ज दीहा धनधन्नो ॥ पुण्य लता जागे हजी रे, जोल हुँ पुत्र रतन्नो ॥ जो लडं पुत्र तणी शुद्धि हांथी, तो चरित्रार्थ होये फुःखमांथी । पण कहीये कांश एरी गेरी, ए नृप. मुज बिहुं पखनो वैरी ॥जी॥
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