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( २०६ )
लो, तेह समय रयवामीयें रे, चढि रिनो सालो ॥ चढीयो नृपकुल शाल निशंको, दिगिमि मामें देवा मी को ॥ रंगें रमतो सायर कंठें, आव्यो वढ्यो सु जट उठे ॥ जीराजेंद्र जीरे ॥ निरखे जलनिधि खेल, पनोतो राजवी रे ॥ मूक्या जेणे डुर्दत, सीमामा जांज वीरे ॥ एकणी ॥ १ ॥ पुर साहामो जख यावतो रे, जलमां नूपें दीठो ॥ निरख्यो जा सरिखो वली रे, बेठो तेहनी पीठो ॥ बेठो तेहनी करी सवारी, लोक कहे ए नर के नारी ॥ कौतुक वाध्युं जोवा स्वारू, मलया माणस खांते वारू || जी० ॥ २ ॥ ए क जणे गरुमें चम्यो रे, दीसे जिम गोविंदो ॥ एह कवण जल मारगें रे, यावे बे स्वछंदो ॥ श्रवे बे नृप जांखे मानो, कोलाहलथी जाशे पाठो ॥ मौन धरी नि रखो रही घाटें, जोवे जण बाना रही थावें ॥ जी० ॥ ॥ ३ ॥ जथी कांइक वेगलो रे, यावे सायर तीर ॥ शुंढाद सुंदरी रे, उतारे ग्रह धीर || उतारि ग्रही बाहिर मोमें, सुंदर थल भूमि जई बोके ॥ प्रणमं । व लियो पाढो बानो, वली वली जोतो मुख प्रमदानो ॥ जी० ॥ ४ ॥ थयो दृश्य महा जलें रे, रयणायरमां मीनो ॥ भूपति त्यां मलया कन्हे रे, आवे विस्मय ली
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