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(१२७) हाथ ते॥॥ फणिधर महोटो हो राज, हाथें वलगो राज, न रहे अलगो रे वांको कर बागमतां ॥ २३ ॥ ते कहे इहां तो हो राज, कांश्क दाते राज, मगधा हसतीरे नांखे एह डे ताहरो ॥ २४ ॥ में मुज बोल्यो हो राज, ते एह दीधो राज, तुज दे णाथी रे कीधो माहारे बूटको ॥ २५॥ लोक हसंता हो राज, कहे तिहां बहुलां राज, एहने दीधुं रे एणे कांश्क रूअखें ॥२६॥ विषधर मंक्यो हो राज, ते नर मूक्यो राज, तोतिल नामें रे देवी केरें बारणे ॥१७॥ मुजने तेमी हो राज, मगधा साथै राज, निजघर आवी रे पाम माहारो मानती॥ २०॥ बीजे खमे हो राज, ढाल सत्तरमी राज, कांति उमंगें रे जांखी रूमी नेहशुं ॥५॥
॥ दोहा ॥ ॥ हार रही में तेहने, आप्यो श्म उच्चाट ॥ तुज घर नृपद्वेषी वसे, पेसुं नहीं ते माट ॥ १॥ श्म सु पीते विलखी था, चिते एहवं चित्त ॥ए नापीले कोश्क नर, जाणे रहस्य चरित्त ॥ ५॥ बीहती मन मां बापमी, मुजने इम कहे वाण ॥ रखे सुगुण कहे ता किहां, कहुं बुं जोमी पाण ॥ ३॥ किहां सुपारीं
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