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( ११२ ) सिंहासने, देव जिस्या सोहंत लाल रे ॥ परवरिया परिवारशुं, रूपें जग मोहंत लाल रे || सु ॥ २॥ ढाल थई ए बारमी, बीजे खंदें उदार लाल रे || कांति कहे इहां परणसे, महाबल मलया नार लाल रे ॥ सु०॥ २३ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ जूप न देखे कुमरने, तव बोल्यो अकुलाय || रे जोवो नाणी किहां, गयो खबर ब्यो जाय ॥ १ ॥ क हे सेवक जोई तिहां, श्राव्यो नहीं थम मीट ॥ करी बूटो कहां गयो, जिम फल पाके बीट ॥ २॥ नूप जणे पहेला ईणे, साध्यो मंत्र सुसाज ॥ साधन अर्द्ध रह्यो हतो, गयो हशे तस काज ॥ ३ ॥ वचन स वे तेहनां मव्यां, पण न मल्यो एक बोल ॥ कन्या वर महाबल को, एतो वचन टकोल ॥ ४ ॥ श्रवसरें इहां आव्यो नहीं, नहीं योग होनार ॥ निमित्त वचन निःफल होसे, है है सरजण हार ॥ ५ ॥ कुंअर सुणी तिहां वस्त्रसुं, ढांकी बदन हसंत ॥ सर्व जणा से बेदमे, म मनमांहें कहंत ॥ ६ ॥ वात लही कन्या तणी, नूपें सकल यथार्थ ॥ मांहो मांहिं ते कहे, आव्या बुं शे अर्थ ॥ ७ ॥ मलया बाला बापमी, मारी विष प राध || हवे नृपनें किम वालशे, उत्तर देई अबाध ॥८॥
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