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हे बे कुण अनिराम के ॥ २१ ॥ हु० ॥ तव हरि बलने ते कहे, वेतालक हे सुप्पो पंथी साथ के ॥ म
नवेग बे नूपति, वीशाला हे नगरी नो नाथ के ॥१२॥ दु० ॥ यरियण सघला वश करी, राज्य जोगवे हे सुरपतिनी समान के ॥ पायक गज तुरी बे घणा, सप्त लकनी हे ठकुराइएं मान के || १३ || हु० ॥ व रण अढार वसे इहां, पुण्य करणी हे करतां सहु लो क के ॥ पापनी बुद्धि मजे नही, जोगीजन हे बसे चा तुर कोक के ॥ २४ ॥ ० ॥ बार जोया पोली कही, नव जोयण हे दीर्घ शोजित पोल के ॥ कनक रयणमय मालियां, चोराशी हे चटानी उल के ॥ २५ हु० ॥ जालीयें स्वर्गपुरी जली, वीशाला हे नगरीनुं नाम के ॥ सुखीयां लोक वसे सहु, दुःखीयानुं हे नवि दीसे वा म के ॥ २६ ॥ ० ॥ एहवो व्यतिकर मांगीने, वैता लकें हे कह्यो थर जमाल के ॥ सांजलि बेहु राजी थयां, लब्धि कहे हे ए तो सातमी ढाल के ॥ २७ ॥ हु ० ॥ ॥ दोहा ॥
॥ नगरी नृपनी वारता, वैतालें कहि जाम ॥ वात वधामपि हरिबलें, दीधी मुद्दा ताम ॥ १ ॥ चित व रियुं वैतालनुं, देखी पीली वस्त ॥ हरिबलने चरणे न
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