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(२७१) बुदो रे ॥ ६ ॥ ३० ॥ हांजी देश कब जाणीयें, शेठ विजय ने विजया नारी रे ॥ हांजी एकण श य्यायें रंगमें रहे, गृहमें थइ व्रतधारी रे॥७॥३०॥ हांजी शुद्ध वनाव को नवि दिये, ए तो प्रगटे सहज स्वजावें रे॥ हांजी शुरू स्वनाव जव उलखे, तव पर माणंद पद पावे रे ॥ ॥३०॥ हांजी लौकिकने म ते पण कहे, बार नूंसे के तन शीशो रे ॥ हांजी तो पण शुरू होवे नही, लोटे बारमें अश्व चक्री ढुंशो रे॥ए॥३०॥ हाजी गंगाजलें जीले केइ जना, करे मांहे तप शुरू होवा रे ॥ हांजी तो पण गुरू होवे नही, रहे मेडकां मही जल लेवा रे ॥ १० ॥३०॥ हांजी नंधे मस्तकें के जना, करे तपस्या था नज मालो रे ॥ हांजी इम जोतां बंधे मस्तकें, रहे वागुल जर तरुमालो रे ॥११॥३०॥ हांजी के जन जटा वधारता, करे तपस्या गुज चित्त लाई रे ॥ हांजी श्म तप होवे तो न्यग्रोधे, वधे अहनिश जटा वडवा रे॥१२॥ ३० ॥ दांजी के जन मुंम मुंमा वता, करे मस्तकें चीयां टीलां रे ॥ हांजी श्म धर्म जो होवे नेकने, केश लूंचे खटमासें चीला रे ॥१३॥ ॥३॥ हांजी निजनिज मतने पोषवा, ए तो चलवे
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