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( १०१ )
फलपत्य ॥ स० ॥ टंकण भुंकणनी परें, मेव्यो उखा यो सत्य ॥ सणात ॥२४॥ कुण राणा कुरा दूंबला, करणी सारु होय ॥ स० ॥ कुगति सुगति लहे कर एपीयें, उत्तम मध्यम जोय ॥ स० ॥ त० ॥ २५ ॥ इणिपरें नरपतिजी तुमें, जो करशो अन्याय ॥ स॥ तो तुमची गति इणि परें, होशे ताजकी राय ॥ स०॥ ॥ त० ॥ २६ ॥ इणिपरें वाणी सांजली, चमक्यो न रपति चित्त ॥ स०॥ सांचल रे जीत नाटिका, जाणी महीनी रीत ॥ स०॥ ॥ २७ ॥ मंत्रीनी लइ जस्म ते, जल शरणें करी राय ॥ स० ॥ हरिबल कहे नृप पुर तणी, जाय अलाय बलाय ॥ स ० ॥त ॥२८॥ इम कहि नृप मंदिरें, वलियो ते महिपाल ॥ स ० ॥ लब्धि कही बही मर्मनी, चोथा उल्लासनी ढाल ॥ सणात ॥२॥ ॥ दोहा ॥
॥ नूपादिक नगरी जना, सदु समज्या मनमांहि ॥ ए करणी हरिबन तणी, जाली सघले त्यांहि ॥ १ ॥ जली थई जावठ गई, विण उपधें विराध ॥ हरिबल केरा धर्मथी, हवे थइ सुरक समाध ॥ २ ॥ इम कहेतां नगरी जनां, वलीयां निज घर लोक ॥ हरिबल साचो हीरलो, पुण्य तलो ए थोक ॥ ३ ॥ कालसेन कुपा
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