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सुहागण जागी अनुन्नव प्रीत ॥
सुदा० ॥ए आंकणी॥ निंद अज्ञान अनादिकी, मिट गनिज रीतसु०॥१॥ घट मंदिर दीपक कीयो, सहज सुज्योति सरूप॥ आप पराश् आपही, गनत वस्तु अनूप ॥सु॥२॥ कदा दिखावू औरकुं, कदा समजाउँ नोर॥ तीर अचूक है प्रेमका,
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