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(२५३) अंतर सप्तधात रस नेदी, परम प्रेम उपजावे ॥ पूरव नाव अवस्था पलटी, अजब रूप दरसावे॥ ॥१॥ नख शिख रदत खुमारी जाकी, सजल सघन घन जैसी॥ जिन ए प्याला पिया तिनकू,
और केफरति कैसी॥०॥शा अमृत होय हलाहल जाकू, रोग शोक नवि व्यापे॥ रहत सदा गरकाव नसामें,
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