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( २१३ )
मुख बिन चरिज देखुं हुं आइ री ॥ जू० ॥ २ ॥
पुरुष एक नारी निपजाइ, ते तो नपुंसक घर में समाई री ॥ पुत्र जुगल जाये ति बाला, ते जग मांदे अधिक दुःखदाइ री ॥ जू० ॥ ३ ॥
कारण बिन कारजकी सिद्धि, केम नई मुख कही न विजाइ ॥ ॥ चिदानंद एम प्रकल कलाकी.
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