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जहा दुक्खं भरेउं जे, होइ वायरस कोत्थलो। तहा दुक्खं करेउं जे, कीवेणं समणत्तणं॥४१॥
अर्थात् - जिस प्रकार कपड़े के कोथले को हवा से भरना कठिन है, उसी प्रकार कृपण-कायर एवं निर्बल से श्रमणत्व-साधुपना पाला जाना दुष्कर है।
जहा तुलाए तोलेउं, दुक्करो मंदरो गिरी। तहा णिहुयणीसंकं, दुक्करं समणत्तणं॥४२॥
अर्थात् - जिस प्रकार सुमेरु पर्वत को तराजु से तोलना कठिन है उसी प्रकार कामभोगों की अभिलाषा और शरीर के ममत्व एवं सम्यक्त्व के शंकादि दोषों से रहित होकर साधुपने का पालन करना बड़ा कठिन है।
जहा भुयाहिं तरिउं, दुक्करो रयणायरो। _ तहा अणुवसंतेणं, दुक्करं दम-सायरो॥४३॥
- जिस प्रकार रत्नाकर समुद्र को भुजाओं से तैरना कठिन है, उसी प्रकार कषायों को उपशान्त किये बिना संयम रूपी समुद्र को तैरना बड़ा कठिन है।
इसके उत्तर में मृगापुत्रजी अपनी माता से कहते हैं - सो बिंत अम्मापियरो, एवमेयं जहाफुडं। इहलोगे णिप्पिवासस्स, णत्थि किंचि वि देवकरं। ___अर्थात् - मृगापुत्रजी कहने लगे कि हे माता पिताओ! संयम का पालन करना वास्तव में ऐसा ही कठिन है, जैसा आपने कहा है, किन्तु इस लोक में अर्थात् स्वजन सम्बन्धी परिग्रह तथा काम-भोगों में निःस्पृह बने हुए पुरुष के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org