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७.सजमा
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अर्थात् - जिस प्रकार आकाश-गंगा की धारा को अर्थात् चुलहिमवंत पर्वत से नीचे गिरती हुई.धारा को तैरना बड़ा कठिन है तथा धारा के सामने तैरना कठिन है और जिस प्रकार भुजाओं से सागर को पार करना कठिनतर है। उसी प्रकार गुण उदधि ज्ञानादि गुणों के समूह रूप उदधिसागर को तिरना पार करना अत्यन्त कठिन है।
वालुयाकवलो चेव, णिरस्साए उ संजमे। असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउं तवो॥३८॥
अर्थात् - जिस प्रकार बालू रेत का ग्रास नीरस होता है उसी प्रकार विषय भोगों में गृद्ध बने हुए मनुष्यों के लिए संयम नीरस है
और जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना कठिन है, उसी प्रकार तप संयम का आचरण करना भी बड़ा कठिन है।।
अहीवेगंतदिहीए, चरिते पुत्त! दुच्चरे। जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुक्करं॥३६॥
अर्थात् - हे पुत्र! सर्प की तरह अर्थात् जिस प्रकार सांप एकाग्र दृष्टि रख कर चलता है, उसी प्रकार एकाग्र मन रख कर संयम-वृत्ति में चलना कठिन है और जिस प्रकार लोह के जौ अथवा चने चबाना अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार संयम का पालन करना भी कठिन है।
जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुदुक्करा। तहा दुक्करं करेउंजे, तारुण्णेसमणत्तणं॥४०॥
अर्थात् - जिस प्रकार दीप्त-जलती हुई अग्नि की ज्वाला शिखा को पीना अत्यन्त कठिन होता है उसी प्रकार तरुण अवस्था में साधुपना पालन करना अत्यन्त कठिन है।
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