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प्रस्तावना ******** ********************
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गमनागमन, शयन, भिक्षागमन, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, आलापसंलाप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, आराधना, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य आदि अनेक आवश्यक अत्यावश्यक, अल्पावश्यक कार्यों की विधि का विधान करने में आया है, यहां तक कि रात्रि को निद्रा लेते यदि करवट फिराना हो तो किस प्रकार फिराना, मल मूत्रादि किस प्रकार परिष्ठापन करना, कभी सूई, केंची, चाकू याचने की आवश्यकता हो तो कैसे याचना, फिर लौटाते समय किस प्रकार लौटाना, अन्य मार्ग न होने पर कभी एकाध बार नदी पार करने का काम पड़े तो किस प्रकार करना, आदि विधियों का विस्तृत विवेचन किया गया है। छेद सूत्रों में दण्ड विधान किया गया है कि उसमें कितने ही ऐसे कार्यों का भी दण्ड बताया गया है कि जिनका मुनि जीवन में प्रायः प्रसंग भी उपस्थित नहीं होता।
इतने कथन से हमारे कहने का यह आशय है कि परमोपकारी तीर्थंकर महाराज ने जो अगार और अनगार धर्म बताया है, उसमें "मूर्ति-पूजा" के लिए कहीं भी स्थान नहीं है, न मूर्ति-पूजा धर्म का अंग ही है।
हमारे कितने ही मूर्ति-पूजक बन्धु यों कहा करते हैं कि "मूर्ति-पूजा सूत्रों में सैकड़ों जगह प्रतिपादन की गई है" किन्तु उनका यह कथन एकान्त मिथ्या है।
प्रथम तो मूर्ति-पूजक गृहस्थ लोगों का यह कथन इनके माननीय धर्म गुरुओं के बहकाने का ही परिणाम है, क्योंकि इनके गुरुवर्यों ने सूत्र स्वाध्याय के विषय में श्रावकों को अयोग्य ठहरा कर इनका अधिकार ही छीन लिया है। जिससे कि ये लोग खुद आगम
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