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रचे जाने लगे, इसका वर्णन हम श्री हरिभद्रसूरिजी के शब्दों में ही व्यक्त कर आये हैं । यही कारण है कि जैन धर्म के असली प्राण भाव को उसी समय से तिलांजली देदी गई और पतन का सर्वनो व्यापी बना दिया गया, हमारे कहने का आशय यह है कि जैनियों ने आडम्बर को महत्त्व देकर लाभ नहीं उठाया, वरन् उल्टा अपना गंवा बैठे। श्रीमान् लोकाशाह ने इन्हीं शिथिलताओं को दूर कर फिर से आडम्बर रहित अहिंसा धर्म को बतलाया और शास्त्रानुकूल जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया। परन्तु खेद है कि फिर भी वही पुराना ढर्रा (अपनी ही ढपली बजाना) चल रहा है। कितने ही व्यक्ति अपना अधिकार न समझ कर उल्टी बातों का फैलाव करते ही रहे और वर्तमान में कर भी रहे हैं। इतना ही नहीं सत्य जैन समाज पर अघटित आक्षेप करने से बाज नहीं आते और अपनी तू तू मैं मैं की हा हू मचाते ही रहते हैं तथा जनता को धोखे में डालकर अपना स्वार्थ साधते हैं ।
प्यारे न्यायप्रिय महाशयों इन प्रेमियों का ताण्डव बढ़ने न पावे और वास्तविक सत्य क्या है इसको जनता भली प्रकार से जान ले, इसी उद्देश्य को सामने रखते हुए श्रीमान् रतनलालजी डोशी सैलाना निवासी ने यह पुस्तक 'लोकाशाह मत समर्थन' नामक आपके सामने रखी है। इसमें उन कुयुक्तियों का ही वास्तविक रीत्या जवाब दिया गया है, जो कि समाज में भ्रम फैलाने वाली एवं बाह्याडम्बर को महत्व देने वाली हैं । अन्त में शिथिलाचार पोषकों ने कैसी-कैसी कपोल कल्पित बातें लिखी हैं इसका
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