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हम यहाँ संक्षिप्त परिचय देते हैं । अतएव अधिक विचार यह नहीं कर सकते । किन्तु इतना ही बताना आवश्यक समझते हैं ि
श्रीमान् लोकाशाह ने, जैन धर्म को अवनत करने में प्रधान कारण, शिथिलाचार वर्द्धक, पाखण्ड और अन्धविश्वास की जननी भद्र जनता को उल्लू बनाकर स्वार्थ पोषण में सहायक ऐसी जैनधर्म विरुद्ध मूर्तिपूजा का सर्व प्रथम बहिष्कार कर दिया, जो कि जै संस्कृति एवं आगम आज्ञा की घातक थी, यह बहिष्कार न्याय संग और धर्म सम्मत था और था प्रौढ़ अभ्यास एवं प्रबल अनुभव व पुनीत फल | क्योंकि मूर्तिपूजा धर्म कर्म की घातक होकर मानव व अन्धविश्वासी बना देती है और साथ ही प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग भ करवाती है। मूर्तिपूजा से आत्मोत्थान की आशा रखना तो पत्थर ब नाव में बैठ कर महासागर पार करने की विफल चेष्टा के समान है ।
श्रीमान् लोकाशाह द्वारा प्रबल युक्ति एवं अकाट्य न्यायपूर्व किये गये मूर्तिपूजा के खण्डन से जड़पूजक समुदाय में भारी खलब मची। बड़े-बड़े विद्वानों ने विरोध में कई पुस्तकें लिख डाली कि आज पांच सौ वर्ष होने आये हैं अब तक ऐसा कोई भी मूर्तिपूज नहीं जन्मा जो मूर्ति पूजा को वर्द्धमान भाषित या आगम वि ( आज्ञा ) सम्मत सिद्ध कर सका हो । आज तक मूर्ति पूजक बन्धु की ओर से जितना भी प्रयत्न हुआ है सब का सब उपेक्षणीय है। इसी बात को दिखाने के लिए इस पुस्तिका में श्रीमान् लोकाशाह मूर्तिपूजा खण्डन के विषय में मूर्तिपूजकों की कुतर्कों का समाध और श्रीमान् शाह की मान्यता का समर्थन करते हुए पाठकों शांतचित्त से पढ़ने का निवेदन करते हैं।
रतनलाल डो
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