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________________ १६८ अंतिम निवेदन **************************************** पूजक बंधु सन्मार्ग से वंचित हैं, इन्हें सत्यासत्य के निर्णय करने की रुचि नहीं है। इसीसे ये लोग आंखें बंद कर सूत्र तथा चारित्र धर्म का घातक, संसार वर्द्धक एवं सम्यक्त्व को दूषित करने वाली ऐसी मूर्ति पूजा के चक्कर में पड़े हुए हैं। . ऐसी हालत में आपका यह कर्त्तव्य हो जाता है कि - प्रथम आप स्वयं इस विषय को अच्छी तरह समझ लें, फिर अपने से मिलने वाले सरल बुद्धि के मूर्ति पूजक बंधुओं को केवल परोपकार बुद्धि से योग्य समय नम्र शब्दों से समझाने का प्रयास करें। आवेश को पास तक नहीं फटकने दें। तो आशा है कि - आप कितने ही भद्र बंधुओं का उद्धार कर सकेंगे, उन्हें शुद्ध सम्यक्त्वी बना सकेंगे, और वे भी आपके सहयोग से शुद्ध धर्म की श्रद्धा पाकर अपनी आत्मा को उन्नत बना सकेंगे। इस छोटीसी पुस्तिका को पूर्ण करने के पूर्व मैं मूर्ति पूजक विद्वानों से निवेदन करता हूं कि - वे एक बार शुद्ध अन्तःकरण से इस पुस्तक को पठन मनन करें, उचित का आदर करें और जो अनुचित मालूम दे, उसके लिये मुझे लिखें, मैं उनकी सूचना पर निष्पक्ष विचार करूंगा और योग्य का आदर एवं अयोग्य के लिये पुन: समाधान करने का प्रयास करूंगा। मूर्तिपूजक विद्वान् लोग यदि मूर्तिपूजा करने की भगवदाज्ञा ३२ सूत्रों के मूल पाठ से प्रमाणित कर देंगे, तो मैं उसी समय स्वीकार कर लूंगा। __ यदि इस पुस्तिका में कहीं कटु शब्द का प्रयोग हो गया हो तो उसके लिये मैं सविनय क्षमा चाहता हुआ निवेदन करता हूं कि - पाठकवृन्द कृपया इसके भावों पर ही विशेष लक्ष्य रखते हुए आई हुई शाब्दिक कटुता को कटु औषधि के समान व्याधिहर मान कर ग्रहण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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