________________
धर्म दया में है हिंसा में नहीं
की विरोधिनी और हिंसा की जननी है। अब इस दया की महिमा में कुछ प्रमाण मूर्ति पूजक ग्रन्थों के भी देखिये, जिन में कि ये धर्म के कार्यों में भी हिंसा करना बुरा कहते हैं -
( १ ) योगशास्त्र के प्रकाश २ में श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य लिखते
१६२
हैं -
हिंसा विघ्नाय जायते, विघ्न शांत्ये कृताऽपिहि । कुलाचार धियाप्येषा, कृता कुल - विनाशिनी ॥ २६ ॥ अर्थात् विघ्न शांति या कुलाचार की बुद्धि से भी की गई हिंसा विघ्नवर्द्धक एवं कुल का क्षय करने वाली होती है।
(२) पुन: हेमचन्द्रजी उक्त ग्रन्थ और उक्त ही प्रकाश के श्लोक ३१ में लिखते हैं कि
-
दमो देव गुरुपास्ति - दानमध्ययनं तपः ।
सर्वमप्येतद् फलं हिंसां चेन्न परित्यजेत् ॥ ३१ ॥
"
अर्थात् - जो हिंसा का त्याग नहीं करे तो देव गुरु की सेवा और दान, इन्द्रिय दमन, तप, अध्ययन, यह सब निष्फल है । (३) फिर आगे चालीसवां श्लोक पढिये -
शम शील दया मूलं, हित्वा धर्म जगद्धितं । अहो! हिंसापि धर्माय, जगदे मन्दबुद्धिभिः ॥ ४० ॥ अर्थात् - शान्ति शील व दया मूल के जगहितकारी धर्म को छोड़कर मन्दबुद्धि वाले लोग धर्म के लिए भी हिंसा कहते हैं, यह महदाश्चर्य है ।
(४) श्री हेमचन्द्राचार्य मन्दिर मूर्ति से तप संयम की महिमा अधिक बताते हुए प्रकाश, श्लोक १०८ के विवेचन में लिखते हैं कि
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org