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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
१६१ ********************************************* न समणुजाणंति, इति से महतो आयाणासो उवसंते उवसंते उवट्ठिए, पडिविरते से भिक्खू।
(५) ज्ञात धर्म कथांग में मेघकुंवर ने हाथी के भव में एक पशु की दया की जिससे संसार परित्त कर दिया, स्वयं सूत्रकार ने वहां 'पाणाणुकम्पयाए' आदि से संसार को परिमित कर देने का कारण दया ही बताया है।
(६) ज्ञाता धर्म कथा अ० ८ में भगवती मल्लिकुमारी ने चोक्खा परिव्राजिका को कहा कि - 'जिस प्रकार रक्त में सना हुआ वस्त्र रक्त से धोने पर शुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार हिंसा करने से धर्म नहीं हो सकता।'
(७) प्रश्न व्याकरण के प्रथम संवर द्वार में स्वयं श्रीगणधर महाराजा ने दया की महिमा की है और साथ ही दयावानों की महिमा करते हुए दया के गुण निष्पन्न ६० नाम भी बताये हैं। उक्त प्रकरण में यहाँ तक लिखा गया है कि - श्री सर्वज्ञ प्रभु ने “समस्त जगत् के जीवों की दया अर्थात् रक्षा के लिए ही धर्म कहा है।"
(८) उत्तराध्ययन सूत्र अ० १८ में सगर चक्रवर्ती का दया से ही मोक्ष पाना बताया है, यथा -
सगरो वि सागरंतं, भरहं वासं नराहिवो। इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाए परिणिन्वुए।
उक्त प्रमाणों से हमारे प्रेमी पाठक यह स्पष्ट समझ सके होंगेकि जैनागमों में आत्म-कल्याण की साधना के लिए दया को सर्व प्रधान और अत्यधिक महत्त्व का स्थान दिया गया है, किन्तु मूर्ति पूजा के लिए तो एक बिन्दु मात्र भी जगह नहीं है, क्योंकि-यह दया
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