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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
१५१ ******************************************** की स्वार्थपरता को खुल्ला करने में पर्याप्त है, वास्तव में मूर्ति पूजा की ओट से मतलबी लोगों ने जन साधारण को खूब धोखा दिया है, अतएव मुमुक्षुओं को इससे सर्वथा दूर ही रहना चाहिये।
(३) स्वयं विजयानंदसूरि मूर्ति पूजा को धर्म का अंग नहीं मानकर लौकिक पद्धति ही मानते हैं, देखिये जैनतत्त्वादर्श पृ० ४१८
“विघ्न उपशांत करणे वाली अंग पूजा है तथा मोटा अभ्युदय पुण्य की साधने वाली अग्र पूजा है तथा मोक्ष की दाता भाव पूजा है।"
इसमें केवल भाव पूजा को ही मोक्षदाता मानी है और भाव पूजा का स्वरूप ये ही पृ० ४१६ पर लिखते हैं कि -
'इहां सर्व जो भाव पूजा है, सो श्री जिनाज्ञा का पालना है।' इसी तरह श्री हरिभद्रसूरि भी लिखते हैं कि - 'आपणी मुक्ति ईश्वरनी आज्ञा पालवा मांज छ।'
(जैन दर्शन प्रस्तावना पृ० ३३) फिर पूजा का स्वरूप भी हरिभद्रसूरि क्या बताते हैं, देखिये - 'पूजा एटले तेओनी आज्ञानुं पालन।'
(जैन दर्शन प्र० पृ० ४१) इस प्रकार प्रभु आज्ञा पालन रूप भाव पूजा ही आत्म-कल्याण में उपादेय है, किन्तु मूर्ति पूजा नहीं और भाव पूजा में साधुवर्ग भी पंच महाव्रत, ईर्ष्या भाषादि पंच समिति तीन गुप्ति और ज्ञानादि चतुष्ट्य का पालन करके करते हैं, श्रावक वर्ग सम्यक्त्व पूर्वक बारह व्रत तथा अन्य त्याग प्रत्याख्यानादि करके करते हैं, यह भाव पूजा अवश्य मोक्ष जैसे शाश्वत सुख को देने वाली है और मूर्ति पूजा तो आत्म-कल्याण में किसी भी तरह आदरणीय नहीं है, यह तो उल्टी आस्रव द्वार का, जो कि-आत्मा को भारी बनाकर आत्म-कल्याण से
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