________________
१५० मूर्तिपूजक प्रमाणों से मूर्ति पूजा की अनुपादेयता ****李学家麥麥********** *** ****李李李****京京《李* .. “कितनीक क्रियां को जे आगम में नहिं कथन करी है तिनको करते हैं और जे आगम ने निषेध नहीं करी है-चिरंतन जनों ने आचरण करी है तिनको अविधि कह करके निषेध करते हैं और कहते हैं यह क्रियाओं धर्मी जनों को करणे योग्य नहीं है, किन-किन क्रियाओं विषे "चैत्य कृत्येषु स्नात्रबिम्ब प्रतिमाकरणादि" तिन विषे पूर्व पुरुषों की परम्परा करके जो विधि चली आती है तिसको अविधि कहते हैं।" (अज्ञान तिमिर भास्कर पृ० २६६)
श्री विजयानंदसूरि के उक्त कथन से यह स्पष्ट हो गया कि - चैत्य कराना, स्नात्र पूजा, बिम्ब प्रतिमा स्थापना आदि कृत्य सूत्रों में नहीं कहे, किन्तु केवल पूर्वजों से चली आती हुई रीति है।
(२) संघपट्टककार श्री जिन वल्लभसूरि क्या कहते हैं देखिये
“आकृष्टं मुग्ध-मीना बडिशपि शितवद् बिंबमादर्श्य जैनं । तन्नाम्ना रम्यरूपा-नयवर-कमठान् स्वेष्ट-सिद्धयै विधाप्य। यात्रा स्नात्राद्युपायैर्नमसितकनिशा जागराधै श्छलैश्च । श्रद्धालु म जैनेश्छलित इव शठैर्वेच्यते हा जनोऽयम्॥२१॥" . अर्थात् - जिस प्रकार रसनेन्द्रिय में मुग्ध मछलियों को फंसाने के लिए बधिक लोग मांस को कांटे में लगाते हैं, उसी प्रकार द्रव्यलिंगी लोग मांसवत् ऐसे जिन बिम्ब को दिखाकर तथा स्वर्गादि इष्ट सिद्धि कह कर, यात्रा स्नात्रादि उपायों से, निशा जागरणादि छलों से यह श्रद्धालु भक्त, धूर्त की तरह नामधारी जैनों से ठगे जाते हैं, यह दुःख की बात है।
यह एक मूर्ति पूजा आचार्य के दुःखद हृदय के उद्गार रूप संघपट्टक का २१ वां काव्य मूर्ति पूजा के पाखण्ड और स्वार्थ पिपासुओं
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org