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. [18] ********************************************* जैनधर्म की उन्नत अवस्था का ही प्रभाव था, ऐसे उदयाचल पर पहुँचा हुआ जैन धर्म थोड़े समय के पश्चात् फिर अवनत गामी हुआ, होते-होते यहाँ तक स्थिति हुई कि धर्म और पाप में कोई विशेष अन्तर नहीं रहा। जो कृत्य पाप माना जाकर त्याज्य समझा जाता था, वही धर्म के नाम पर आदेय माना जाने लगा। हमारे तारण तिरण जो पृथ्वी आदि षट्काया के प्राण वध को सर्वथा हेय कहते थे, वही प्राण वध धर्म के नाम पर उपादेय हो गया। मन्दिरों और मूर्तियों के चक्कर में पड़ कर त्यागी वर्ग भी हम गृहस्थों जैसा और कितनी ही बातों में हम से भी बढ़ चढ़ कर भोगी हो गया। स्वार्थ साधना में मन्दिर और मूर्ति भी भारी सहायक हुई, मन्दिरों की जागीर, लाग, टेक्स, चढ़ावा आदि से द्रव्य प्राप्ति अधिक होने लगी। भगवान् के नाम पर भक्तों को उल्लू बनाना बिल्कुल सहज हो गया। बिना पैसे चढ़ाये धर्म की कोई भी क्रिया असफल हो जाती थी। धन, जन, सुख एवं इच्छित कार्य साधने के लिए दुःखी शक्त जन विविध प्रकार की मान्यताएं (मांगनी) लेने लगे। इस प्रकार त्यागी वर्ग ने धर्म के वास्तविक स्वरूप को भुलाकर विविध प्रकार से मन्दिर मूर्तियों का पूजना पूजाना और इस प्रकार पाखण्ड एवं अंधविश्वास का प्रचार करना ही अपना प्रधान कर्त्तव्य बना लिया था। धर्मोपदेश में भी वही स्वार्थ पूरित नूतन ग्रन्थ, कथाएँ, चरित्र और रास महात्म्य आदि जनता को सुनाने लगे जिससे जनता बस मन्दिरों के सुन्दराकार पाषाण को ही पूजने में धर्म मानने लगी। सत्य धर्म के उपदेशक ढूंढ़ने पर भी मिलना कठिन हो गये, इस प्रकार अवनति होते होते जब भयंकर स्थिति उत्पन्न होने लगी,
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