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१३८ क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है ?
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अब उक्त गाथा इन्हीं के मतानुयायी श्रावक भीमसी माणेक के छपवाये हुए 'पर्युषण पर्वनी कथाओ' नामक ग्रन्थ के पृ० ५३ में
इस प्रकार है
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आरम्भे नत्थी दया, महिला संगेण नासए बंभ ।
पवज्जा अत्थगहणेणं ॥
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संकाए सम्मतं यद्यपि इस शुद्ध पाठ में भी अशुद्धि है किन्तु इससे यह तो सिद्ध हो गया कि मूर्ति मण्डन करने न जाने किस अभिप्राय से इस गाथा के तीन चरण तोड़ कर उनकी जगह नये पद बिठा दिये हैं।
. ये तो इनके मिथ्या प्रयासों के कुछ नमूने मात्र हैं। अब थोड़ा सा अर्थ का अनर्थ करने के भी कुछ प्रमाण देखिये -
(१) आवश्यक सूत्र के लोगस्स के पाठ में आये हुए "महिया " शब्द का अर्थ फूलों से पूजा करने का लिखकर अनर्थ ही किया है।
(२) निशीथ, वृहद्कल्प, व्यवहार, कल्पसूत्र आदि में आये हुए " विहार भूमिं वा" शब्द का अर्थ स्थंडिल भूमि होता है, किन्तु इससे विरुद्ध ‘जैन मन्दिर' अर्थ कर इन्होंने यह भी एक अनर्थ किया है।
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(३) सूत्रों में “जाएअ" शब्द आया है जिसका अर्थ "याग यज्ञ" होता है। जैन सिद्धांतों को भाव यज्ञ ही मान्य है, द्रव्य नहीं, प्रश्न व्याकरण में दया को यज्ञ कहा है तथा भगवती सूत्र श० १८ उद्देशा २० में सोमिल ब्राह्मण के प्रश्नों के उत्तर में प्रभु ने क्रोधादि के नाश को यज्ञ कहा है। इसी प्रकार ज्ञाता धर्म कथांग अ० ४ में इन्द्रिय नो इन्द्रिय यज्ञ बताया है, इन सभी का भाव आत्मोत्थान रूप क्रियाओं भाव यज्ञ - से ही है, इस प्रकार जैन धर्म को मान्य ऐसे भाव यज्ञ की स्पष्ट व्याख्या होते हुए भी मूर्ति पूजक ग्रन्थकारों ने कल्प सूत्र
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