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________________ श्री लोकाशाह मत-समर्थन ११३ ******************************************** उपादेय बताना एकदम अनुचित है। उक्त उदाहरण तो उल्टा मूर्ति पूजा के विरोध में खड़ा रहता है। यहां हम डाक्टर और रोगी सम्बन्धी कुछ स्पष्टीकरण करके उदाहरण की विपरीतता बताते हैं। जो व्यक्ति शरीर के सभी अंगोपाङ्ग और उसमें रही हुई हड्डियें आदि को जानता व उसमें उत्पन्न होते हुए रोगों की पहिचान कर सकता है तथा योग्य उपचार से उनका प्रतिकार करने की योग्यता प्राप्त करने के लिये बहुत समय तक अध्ययन मनन आदि कर विद्वानों का संतोष पात्र बना और प्रमाण पत्र प्राप्त कर सका हो वही व्यक्ति डाक्टर होकर रोगी की चिकित्सा करने का अधिकारी है। जो व्यक्ति रोगी है, वह रोग मुक्त होने के लिए उक्त प्रकार के कार्य कुशल एवं विश्वासपात्र डाक्टर के पास जाकर अपनी हालत का वर्णन तथा नीरोग बनाने की प्रार्थना करता है, डाक्टर भी उसके रोग की जांच कर उचित चिकित्सा करता है, डाक्टर के उपचार से रोगी को विश्वास हो जाता है कि - मैं नीरोग बन जाऊँगा। यदि डाक्टर को शस्त्र क्रिया की आवश्यकता हो तो वह सर्व प्रथम रोगी की आज्ञा प्राप्त कर लेता है, ये सभी कार्य डाक्टर रोगी के हित के लिए ही करता है, किन्तु भाग्यवशात् डॉक्टर अपने परिश्रम में निष्फल हो जाय, और रोगी रोग मुक्त होते-होते प्राण मुक्त ही हो जाय, तो भी परोपकार बुद्धि वाला डाक्टर रोगी की हत्या का अपराधी नहीं हो सकता। किन्तु एक चिकित्सा विषय का अनभिज्ञ मनुष्य यदि किसी रोगी का उसकी इच्छानुसार भी उपचार करे, और उससे रोगी को हानि पहुँचे, तो वह अनाड़ी ऊंट वैद्य राज्य नियमानुसार अपराधी ठहर कर दण्डित होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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