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आज कई बन्धु जो वीतराग प्रभु के शुद्ध स्वरूप से परिचित नहीं हैं, वे कह देते हैं कि स्थानकवासी धर्म तो मात्र ५०० वर्ष पुराना ही है यानी इसके प्रवर्तक धर्म प्राण लोंकाशाह है। यह उनकी मात्र भ्रमणा है। स्थानकवासी धर्म तो अनादि से है और प्रभु महावीर वर्तमान शासन के आदिकर है। जैसा कि ऊपर बतलाया गया कि प्रभु महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद शनैः शनैः भगवान् के उत्तराधिकारी कहलाने वाले साधु-समाज में धर्म के नाम पर हिंसा आरम्भ आडम्बर के साथ स्वच्छंदता एवं शिथिलाचार बढ़ने लगा। पन्द्रहवीं शताब्दी तक यह स्थिति अपनी चरम सीमा तक पहुँच गई, उस समय धर्म प्राण लोंकाशाह ने समाज को प्रभु महावीर के सिद्धान्तों का शुद्ध स्वरूप से अवगत करा उन्हें पुनः भगवान् के मुक्ति मार्ग में स्थापित किया। अतएव धर्म प्राण लोंकाशाह स्थानकवासी परम्परा के . संस्थापक नहीं बल्कि क्रियोद्धारक महापुरुष हुए।
प्रश्न है कि जड़ पूजा अथवा मूर्ति पूजा क्या आत्मोत्थान में सहायक नहीं है? इसके लिए आगमिक विधान क्या है? इसके समाधान के लिए यह कहने में कोई बाधा नहीं कि जैन धर्म के मान्य बत्तीस आगमों में कहीं पर भी मूर्ति पूजा का उल्लेख है ही नहीं। न ही भगवान् के उत्तराधिकारी साधु समाज ने भगवान् के समय अथवा उनके निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद तक किसी भी जैन साधु ने मन्दिर बनवाया हो अथवा जिर्णोद्धार करवाया हो ऐसा आगम में कहीं पर भी उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार भगवान् के श्रावक वर्ग के मूर्ति पूजा करने का भी आगम में बिन्दु मात्र भी अधिकार नहीं है। बावजूद हमारे मूर्ति पूजक भाई आगम के कुछ स्थलों को अपनी
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