________________
६८
क्या जिन मूर्ति जिन समान है? ********************************************** तथापि थोड़े समय के लिए केवल दलील के खातिर इनका यह कथन मान भी लिया जाय तो भी उनकी पूजा पद्धति व्यर्थ ही ठहरती है, क्योंकि - प्रभु ने दीक्षितावस्था के बाद कभी भी स्नान नहीं किया, न फूल मालाएं धारण की, न छत्र मुकुट कुण्डलादि आभूषण पहने, न धूप दीप आदि का सेवन किया, ऐसे एकान्त त्यागी भगवान् के समान ही यदि उनकी मूर्ति मानी जाय तो-उस मूर्ति को सचित्त जल से स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, फूलों के हार पहनाने, फूलों को काट कर उनसे अंगियां बनाने, केले के पेड़ों को काटकर कदली घर आदि बनाकर सजाई करने, धूप, दीप द्वारा अगणित त्रस स्थावरों की हत्या करने, केशर चन्दन आदि से विलेपन करने आदि की आवश्यकता ही क्या है? क्या दीक्षितावस्था - (धर्मावतार अवस्था) में कभी प्रभु ने इन वस्तुओं का उपभोग किया था? यदि नहीं किया तो अब यह प्रभु विरोधिनी भक्ति क्यों की जाती है? जिन दयालु प्रभु ने पानी पुष्पादि के जीवों का स्पर्श ही नहीं किया और अपने श्रमणवंशजों को भी सचित्त पानी, पुष्प, फल, अग्नि आदि के स्पर्श करने की मनाई की, उन्हीं प्रभु पर उनकी निषेध की हुई सचित्त वस्तुओं का प्राण हरण कर चढ़ाना क्या यह भी भक्ति है? नहीं, ऐसी क्रिया को भक्ति तो किसी भी प्रकार नहीं कह सकते, वास्तव में यह भक्ति नहीं किन्तु प्रभु का महान् अपमान है' । प्रभु के सिद्धान्तों का प्रभु पूजा के लिए ही प्रभु पूजक दिन दहाड़े भंग करे, यह तो मित्र होकर शत्रुपन के कार्य करने के बराबर है।
जिन परम दयालु प्रभु ने धर्म के लिए की जाने वाली व्यर्थ हिंसा को अनार्य कर्म कहा, अहितकारिणी बताई, उन्हीं के भक्त उन्हीं प्रभु के नाम पर निरपराध मूक प्राणियों का अकारण ही नाश कर धर्म माने, यह कितने आश्चर्य की बात है? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org