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८८ चतुर्विंशतिस्तव और द्रव्य निक्षेप ********************************************* में होने वाले की स्तुति सिद्ध नहीं होती। भूतकालीन जिनेश्वरों की स्तुति रूप निम्न वाक्यों पर ध्यान दीजिये -
___“विहूय-रयमला, पहिणजरमरणा, चउविसंपि जिणवरा तित्थयरा मे पसियंतु कित्तिय, वन्दिय, महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा, आरुग्ग बोहिलाभं, समाहिवर-मुत्तमं दिंतु, चन्देसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा, सागरवरगम्भीरा, ‘सिद्धा' सिद्धिं मम दिसंतु", . अर्थात् - चौबीसी ही जिनेश्वरों ने कर्म रज मल को दूर कर दिया है, जन्म मरण का क्षय किया है, अहो तीर्थंकरों मुझ पर प्रसन्न होवो। मैं आपकी स्तुति वन्दना और पूजा (भाव द्वारा) करता हूं। आप लोक में उत्तम हैं। अहो सिद्धो! मुझे आरोग्य और बोधि लाभ प्रदान करो। तथा प्रधान ऐसी समाधि दो। आप चन्द्र से अधिक निर्मल और सूर्य से अधिक प्रकाशमान हैं, सागर से भी अधिक गम्भीर हैं। अहो सिद्ध प्रभो! मुझे सिद्धि प्रदान करो।"
यह स्तुति ही भाव प्रधान जीवन को बता रही है।
अब हमारे प्रेमी पाठक जरा शान्त चित्त से विचार करें और बतावें कि - चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) का कौनसा शब्द चतुर्गति में भ्रमण करने वाले द्रव्य तीर्थंकरों को वंदनादि करना बतलाता है? यह पाठ तो स्पष्ट ‘सिद्ध' विशेषण लगाकर यह सिद्ध कर रहा है कि-जिन तीर्थंकरों की स्तुति की जा रही है वे सिद्ध हो चुके हैं, जिन्होंने जन्म मरण का अन्त कर दिया है, जिनकी आत्मा रज, मल रहित अर्थात् विशुद्ध है आदि वाक्य प्रश्नकार की कुयुक्ति का स्वयं
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