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________________ ८४ २- कर्म खण्ड "आतमको हित है सुख, सो सुख विषयभोगसे लहिये । विषयभोग धन बिन नहि तातें, धन ही धन उपजइये ॥" यह कारिका सर्वथा उचित है । परन्तु गुरु कृपासे अन्तर्दृष्टिको प्राप्त जिस महाभागके लिए सुखका लक्षण निराकुलता अथवा समता है उसके प्रति इस कारिकाका क्या मूल्य हो सकता है । विपरीत इसके इस कारिकामें उल्लिखित प्रवृत्तिसे हटकर आभ्यन्तर - जगतमें प्रवृत्त होनेके प्रति ही उसकी सहज उन्मुखता होगी । यद्यपि सुखका लोभ उसको भी है परन्तु यह लोभ उसे बाहरसे हटाकर भीतरकी ओर ले जा रहा है, जबकि विषय-सुखका लोभ व्यक्तिको भीतरसे हटाकर बाहरको ओर ले जाता है । इसलिये दोनोंमें ३६ के अंककी भांति परस्पर विरोध है । कर्मरहस्य उसकी आभ्यन्तर प्रवृत्तिका अत्यन्त विशद दार्शनिक चित्रण प्रस्तुत करता है । इसके अन्तर्गत अनेकों प्रश्नोंका समाधान निहित है, यथा-- कर्म क्या है, जीवनमें उसकी प्रवृत्ति किस प्रकार होती है, उसके त्यागका उपदेश क्यों दिया जाता है, कर्मत्यागका क्या आशय है और वह कैसे किया जाता है, आत्माके हितके साथ उसका क्या सम्बन्ध है, इत्यादि । २. जैन दर्शनका श्रेय इन सभी प्रश्नोंका उत्तर यद्यपि अपनी-अपनी भूमिकाके अनुसार न्याय-वैशेषिक, मीमांसक, सांख्य योग तथा वेदान्त आदि दर्शनोंने भी दिया है, परन्तु जैन दर्शन ने इन प्रश्नोंका तथा इनके साथ-साथ अन्य अनेक प्रश्नोंका उत्तर जिस अनुभव - सिद्ध आभ्यन्तरविज्ञानके द्वारा दिया है वह अपनी जातिका स्वयं है । इसी प्रकार कर्म - सिद्धान्तका विवेचन अपनी-अपनी भूमिकानुसार अन्य सभी दर्शनोंने भी किया है, परन्तु इस विषयका जितना विशद तथा विस्तृत विवेचन जैन - दर्शनमें निबद्ध है, उसके समक्ष वह सागर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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