SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १-अध्यात्म खण्ड समताका उपर्युक्त लक्षण अनुगत है, इसीलिये उन्हें धर्म कहा गया है। किसीको अपराधी देखकर उसके अपराधको क्षमा कर देना यहां क्षमा नहीं कहलाता। राध तथा अपराध दोनोंको समान देखते हुये क्रोधका उदित ही न होना क्षमा धर्म है। इसी प्रकार शास्त्रमें पढ़-सुनकर अथवा किसीके कहने सुननेसे अथवा शिष्टाचार पालन करने के लिये मस्तक झुकानेको मार्दव नहीं कहते। 'कोई बड़ा छोटा नहीं ऐसा समत्व जागृत करके सबके साथ समान व्यवहार करना, किसीका सम्मान किसोका तिरस्कार और किसीके साथ माध्यस्थता ऐसा विषम व्यवहार न करना मार्दव धर्म है। पूर्व अधिकारमें प्रेमपूर्ण विनय अथवा भक्तिका कथन किया गया है, यह मार्दव धर्म उससे विलक्षण है। समता-परिणाम वालेमें वक्र व्यवहार सम्भव नहीं। बालवत् सरल व्यवहार उसका स्वभाव बन जाता है। यही प्रार्यत्व धर्म है। किसी विषयके त्यागको शौच अथवा सन्तोष नहीं कहते। कोई विषय आये या जाये, उसमें किसी प्रकारका विकल्प न करना, न ग्रहणका न त्यागका; विधि निषेधसे अतीत हो जाना, यही समतापूर्ण सन्तोष धर्म है। इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र जानना। हृदयवाले प्रकरणमें जिसे प्रेमके नामसे कहा गया है वही धीरे-धीरे विकसित तथा व्यापक होता हुआ समताका रूप धारण कर लेता है। इसीलिये व्यापक प्रेमका नाम ही समता है। किसी एक जड़ पदार्थके प्रति होनेपर वह आसक्ति कहलाता है, किसी एक चेतन पदार्थके प्रति होनेपर वह प्रेम कहलाता है और समग्रके प्रति होने पर वह समता कहलाता है। इसलिये हृदय ही धर्मकी भूमि है, मन बुद्धि आदि नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy