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________________ ६४ १-अध्यात्म खण्ड उसका स्वभाव होनेसे धर्म है और वही उसके जीवनका सहज प्रवाह होनेसे चारित्र है। २. समता शमता समग्र विश्व को एक अखण्ड सत्ता के रूप में न देखकर इसमें प्वायंट लगा कर देखना ही वास्तव में विषमता है। क्योंकि ऐसा करने से ही मैं-मेरा, तू-तेरा के अथवा इष्ट-अनिष्ट, ग्राह्य-त्याज्य, कर्तव्य-अकर्तव्य आदि के परस्पर विरोधी विषम द्वन्द्व उत्पन्न होते हैं । प्वायंट लगाये बिना समग्र को देखें तो कौन मनुष्य और कौन पशु, कौन स्त्री और कौन पुरुष, कौन बालक और कौन वृद्ध । न यहां कोई विद्वान है न मूर्ख, न ब्राह्मण है न शूद्र, न छोटा है न बड़ा । इसी प्रकार न यहां कुछ मेरा है न तेरा, न इष्ट है न अनिष्ट, न ग्राह्य है न त्याज्य, न कर्तव्य है न अकर्तव्य। साक्षी भाव से समग्र का अवलोकन करने वाले के लिये इन सब द्वन्द्वों को अवकाश ही कहां है। जिस तात्त्विक दृष्टि से मैं आत्मा हूँ उस दृष्टि से आप सब भी आत्मा हैं। और जिस भौतिक दृष्टि से आप मनुष्य हैं उस दृष्टि से मैं भी मनुष्य हूँ। फिर मुख से तो अपने को आत्मा कहना और आंखों से जगत में मनुष्य पशु आदि देखना, छोटे-बड़े का, जैनअजैनका, ब्राह्मण-शूद्रका. ग्राह्य-त्याज्यका व्यवहार करना, यह कैसे सम्भव हो सकता है। यदि हमारे पास दो दृष्टियां होती, अपनेको देखने वाली दृष्टि पृथक् होती और दूसरोंको देखनेवाली पृथक् होती तब तो कदाचित् इस प्रकारका विषम व्यवहार सम्भव हो भी जाता, परन्तु सौभाग्यसे ऐसा नहीं है। इसलिये तत्वालोकमें छोटे बड़े आदिका विषम व्यवहार मिथ्या है, मोह है । - इस मोहका अभाव ही समताका लक्षण है। यहां जो ब्राह्मण है वही शूद्र है, जो जैन है वही अजैन है, जो स्त्री है वही पुरष है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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