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________________ १०-विनय तत्त्वोंको छोड़कर आत्मतत्त्वमें रस लेने लगती है। उस समय यह आत्मरुचि कही जाती है, परन्तु यही आत्मरुचि जब सबको अपनी ही भाँति तात्त्विक दृष्टिसे देखने लगती है तब तत्त्वस्पर्श कहलाती है। यही है हृदयके कपाट खुल जाना जिसे कि सोलहकारण भावनाओंमें दर्शन-विशुद्धि कहा गया है। यहाँ आनेपर व्यक्ति किसीको छोटा बड़ा नहीं देखता, क्योंकि तत्त्वालोकमें सब समान हैं। - विशुद्धिके प्राप्त हो जानेपर अभिमान गलित हो जाता है और उसका स्थान विनय ग्रहण कर लेता है। अन्य सब भावनायें वास्तवमें विनयका विस्तार है। दर्शनके क्षेत्रमें यह दर्शन-विशुद्धि कहलाती है, ज्ञानके क्षेत्रमें अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, चारित्रके क्षेत्रमें निरतिचार शीलव्रत और त्याग व तपके क्षेत्रमें शक्तितस्त्याग तथा शक्तितस्तप कही जाती है। आचार शास्त्रमें इन्हें दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना और तपाराधना कहा गया है। इन गुणोंके प्रति बहुमान तथा विनय होना इनका लक्षण है। चतुर्विध आराधनाके प्रकट हो जानेपर चित्त समाहित, आश्वस्त तथा शान्त हो जाता है। वही साधु-समाधि है जो कि वास्तवमें एकाग्रचिन्ता निरोध लक्षणवाले ध्यानकी आराधना अथवा विनय है। इसी प्रकार आवश्यकापरिहाणि भी वास्तवमें साधुजनोंके दैनिक आचरणके प्रति बहुमान तथा विनय ही है। ___ यहाँ तक गुणोंकी विनय हुई। इसके आगे गुणियोंकी विनयका कथन चलता है, जिसे अपनेसे भिन्न व्यक्ति के प्रति होनेके कारण उपचार-विनय कहा गया है। वास्तवमें यह भी उन व्यक्तियोंमें स्थित गुणोंके प्रति ही होती है व्यक्तिके प्रति नहीं, क्योंकि बिना गुणोंके केवल शरीरकी विनय कौन करता है ? ज्ञानीजन, गुणीजन तथा गुरुजन इन तीनोंकी सेवा शुश्रुषा करना वैयावृत्ति कहलाता है, जो विनयकी ही स्थूल अभिव्यक्ति है। अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुत अर्थात् उपाध्यायभक्ति, प्रवचन अर्थात् शास्त्रभक्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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