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________________ १- अध्यात्म खण्ड इसी प्रकार किसी भी एक विषयके प्रति तन्मय होनेके कारण विषयोन्मुखी जो हृदय अत्यन्त संकीर्णं तथा क्षुद्र है वही तत्वोन्मुखी होनेपर समग्रको आत्मसात् करके अत्यन्त व्यापक, महान् तथा विभु बन जाता है । देहाध्यस्त अपने संकीर्ण 'अहं' के प्रति तन्मय होनेपर हृदयका जो भाव स्वार्थ कहलाता है वही समस्तको आत्मसात कर लेनेपर समता कहलाता है, जिसका कथन आगे पृथक् अधिकारमें किया जानेवाला है, संकीर्ण स्वार्थको विश्वव्यापी समताके रूपमें रूपान्तरित होनेके लिए जिन श्रेणियों अथवा सोपानोंका अतिक्रम करना पड़ता है, उनका ही शास्त्रमें मंत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य आदि नामोंके द्वारा उल्लेख किया गया है । आइये तनिक इनका संक्षिप्तसा दर्शन कर लें । १० देहाभ्यस्त संकीर्ण व्यक्तित्व जब विवाहित होकर एककी बजाय दो में अनुगत हो जाता है तब उसका पूर्वोक्त स्वार्थ प्रेम नाम पाता है। दोमें अनुगत हुआ उसका यह व्यक्तित्व जब सन्तान हो जानेपर पांच में व्याप जाता है तब उसका प्रेम वात्सल्यका रूप धारण कर लेता है, अथवा प्रेमकी अपेक्षा वात्सल्य प्रधान हो जाता है। पांच या दस व्यक्तियोंमें निबद्ध उसका यह कौटुम्बिक व्यक्तित्व जब सामाजिक क्षेत्रमें उतरता है तो विशाल बन जाता है । तब उसका वात्सल्य मंत्रीके रूप में रूपान्तरित हो जाता है . यह मैत्री ही जब समाजके अन्तर्गत किन्हीं धार्मिक जनों अथवा गुणीजनोंको प्राप्त करती है तो प्रमोद अथवा गुणानुमोदना बन जाती है। माता-पिता आदि वयोवृद्ध जनोंके प्राप्त होनेपर यह श्रद्धा तथा विनयका रूप धारण कर लेती है । देव शास्त्र अथवा गुरुकी शरण प्राप्त हो जानेपर इस श्रद्धा तथा विनयके साथ भक्ति भी आ मिलती है । यही मैत्री जब समाजमें किन्हीं दुःखित भुखित अथवा दीन-हीन जनोंको प्राप्त करती हैं तब करुणाका रूप धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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