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चित्र-परिचय
'कर्म रहस्य' नाम का यह ग्रन्थ हमारे जोवन के आभ्यन्तर विधान का विशद विवेचन प्रस्तुत करता है। इस में वर्तमान के जीवन का तात्त्विक दिग्दर्शन कराया गया है। उसी का पूरा चित्रण कवर पर अंकित किया गया है। इसमें यह भाव चित्रित किया गया है कि हमारा वर्तमान का जीवन चित्त के आधीन है । मन से, वचन से अथवा शरीर से जो कुछ भी हम विचारते, बोलते अथवा करते हैं । उस सबके संस्कार हमारी चित्त भूमि पर अंकित हो जाते हैं। हमारी सब क्रियायें इन संस्कारों को प्रेरणा से ही चालित हो रही हैं। ये संस्कार क्योंकि चित्र विचित्र हैं इसलिये हमारे जीवन की समस्त प्रवृत्तियाँ भी सम न होकर विषम हैं। विषमता के इस टेढ़े मार्ग पर स्थित होने के कारण हमारे भीतर तथा बाहर सर्वत्र अन्धकार है। जीवन के इस विधान को देखने तथा समझने में समर्थ तृतीय नेत्र अर्थात् तात्त्विक दृष्टि खुल जाने पर व्यक्ति के पग चित्र भूमिका उल्लंघन कर के तम से ज्योति की ओर, असत् से सत् की ओर और मृत्यु से अमृत की ओर चल निकलते हैं। मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूं कि आप सब को वह दिव्य दृष्टि प्राप्त हो।
जिनेन्द्र वर्णी
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