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________________ ६-अहंकार दर्शन १. पूर्णाहता इदंकी पूर्णता तथा समग्रताका कथन किया जा चुका, अब अहंकी पूर्णता तथा समग्रताका कथन करना है। मैंने बताया था कि एक होते हुए भी ज्ञान अपनेको अहं तथा इदंके रूपमें द्विधा विभक्त कर लेता है। बस यही इस ज्ञानकी अथवा समग्रकी व्यवहार-भूमि है। अहं तथा इदंका एकाकार रूप उसकी परमार्थ-भूमि है। इस भूमिमें अहं ही इदं है और इदं ही अहं है । इनमें कोई वस्तुभूत भेद नहीं है। अहं तथा इदंका यह एकाकार परमार्थ स्वरूप ही आत्मा या चेतना शब्दका वाच्यार्थ है। पहले तो अपनेको द्विधा विभक्त कर लेनेके कारण ही यह क्षुद्र हो गया है और इसपर भी द्रव्यात्मक क्षेत्रात्मक कालात्मक अथवा भावात्मक प्वायंट लगा देनेसे यह अणुसे भी अणु बन गया है। इसलिए स्वयं सब कुछ होते हुए भी अपनेको तथा अपनी महिमाको, अपने विभुत्वको तथा प्रभुत्वको नहीं जानता है । यद्यपि प्रात्मा शब्द व्याख्याओंकी चादर ओढ़कर अपना वाच्य भूल गया है और काल्पनिक कुछ बन गया है, तदपि इस शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ ग्रहण करके यदि विचार करें तो इसका सीधा -३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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