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________________ २०९ ३२-सहज व्यवस्था जो जीव मानसिक तथा शारीरिक संसरणरूप पूर्वोक्त संसारमें स्थित है, उसको संस्कारवश स्वयं ही राग-द्वेष आदि परिणाम या भाव-कर्म होते हैं, जिनके द्वारा उसमें ज्ञातृत्व, कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व ऐसा त्रिविध कर्म होना स्वाभाविक है। ये सकल कर्म क्योंकि संकल्प पूर्वक होते हैं इसलिये कृतक हैं, और फल-भोगकी आकांक्षासे युक्त होते हैं इसलिये सकाम हैं। सकाम होनेके कारण इनके प्रभावसे जीव न चाहते हुए भी नरकादि गतियोंमें भ्रमण करने लगता है। यह है कार्य-कारण भावकी शृंखलामें बद्ध विश्वकी वह तात्त्विक व्यवस्था जिसमें हेर-फेरकरनेके लिये इन्द्र, नरेन्द्र,धरणेन्द्र, जितेन्द्र कोई भी समर्थ नहीं है। 'विश्वमें जितने कुछ भी चेतन तथा अचेतन पदार्थ हैं वे सब इस व्यवस्थाके आधीन वर्तन कर रहे हैं' यह निश्चय करके जो कर्तृत्वसे उपरत होकर ज्ञातृत्वके क्षेत्रमें प्रवेश कर जाता है, वह केवल साक्षी भावसे इस विश्वका तमाशा देखता है, इसमें उलझता नहीं है। दूसरी ओर जो इस व्यवस्थाको लक्ष्य में न लेकर पदार्थों को अपनी कल्पनाके अनुसार बदल देनेका प्रयत्न करता है वह अपने ज्ञातृत्वके पक्षको छोड़कर सदा कर्तृत्वकी चिन्तामें उलझा रहता है। पहला ज्ञाता बनकर मुक्त हो जाता है और दूसरा कर्ता बनकर अपने संसारकी वृद्धि करता है। इस गाथामें आचार्यने एक ओर तो विश्वकी कार्य-कारण व्यवस्थाका चित्रण प्रस्तुत किया है, और दूसरी ओर कर्तृवाच्य (active voice ) के स्थानपर कर्मवाच्य ( passive voice ) का प्रयोग करके यह भाव व्यक्त किया है कि यह व्यवस्था सहज तथा स्वाभाविक है, इसमें किसीके द्वारा कुछ हेर-फेर किया जाना सम्भव नहीं है। तू भी यदि इसी प्रकार कर्तवाच्यकी बजाय कर्मवाच्यमें बोलना सीख जाये, 'मैंने यह किया' ऐसा न बोल कर 'मेरे द्वारा यह हुआ' ऐसा बोले तो तुझे यह प्रतीत होने लग जाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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