________________
३२-सहज व्यवस्था
२०३ स्वातन्त्र्यकी कल्पना किये बैठा है। अपने पारमार्थिक स्वातन्त्र्यका उसे भान ही नहीं है।
यद्यपि जीवनके व्यावहारिक क्षेत्रमें अनेकों अवसर ऐसे आते हैं जब कि वह यदि चाहे तो अपने इस पारतन्त्र्यका प्रत्यक्ष कर सकता है, तदपि अपने संकीर्ण स्वभावके कारण हिरण्यकश्यपुकी भांति गरजता रहता है, और अपनी हारको जीत घोषित करता रहता है। इन्द्रियोंके माध्यमसे प्वायंट लगा-लगा कर समग्रको जान लेना चाहता है, हाथ पांवके माध्यमसे प्वायंट लगा-लगा कर समग्रको अपनी कामनाके अनुसार कर लेना चाहता है। परन्तु असम्भवको सम्भव बनानेकी सामर्थ्य उसमें नहीं है। इसलिये उसकी यह अतृप्त कामना न आजतक पूरी हुई है और न आगे कभी पूरी होनेवाली है।
इस कामनाके कारण वह विश्वके विधानको हिरण्यकश्यपुकी भांति अपने आधीन कर लेना चाहता है, परन्तु कल्पनाओंके जालमें उलझा रहनेके कारण उसे स्वयं यह सोचनेको अवकाश नहीं कि यह बात सम्भव है या असम्भव । स्वयं सोचने का तो प्रश्न नहीं, यदि कोई दूसरा भी उसे समझाने लगे तो गरजने लगता है, उसका उपकार माननेकी बजाय उससे लड़ने मरनेको तैयार हो जाता है। विश्वका विधान स्वतन्त्र है। न वह आजतक किसी के आधीन हुआ है और न होने वाला है। देवेन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्र आदि भी जब उसे अपने आधीन नहीं कर सके, देवाधिदेव अर्हन्त तथा सिद्ध परमात्मा भी जब उसमें कुछ हेरफेर करने के लिये समर्थ नहीं हो सके तब अणुकी भांति क्षुद्र इस मानवीय अहंकारकी तो बात ही क्या । हे प्रभु ! तू अपनी इस संकीर्णताको छोड़ और अपनी प्रभुताको पहचान । विश्व-व्यवस्था तेरे आधीन नहीं है, तू
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org