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________________ ३१- पंच लब्धि १९९ हो जानेपर व्यक्ति तत्त्वका साक्षात् करनेमें सफल हो जाता है । ऐसा हो जानेपर उसे भीतर तथा बाहर सर्वत्र किसी एक तात्त्विक विधानका दर्शन होने लगता है । तत्त्व ही तत्त्वमें वर्तन करते दिखाई देते हैं, अन्य कोई भी कुछ करता दिखाई नहीं देता । जिस प्रकार मशीनकी आटोमेटिक क्रिया विना आप्रेटर के सहज रूपसे स्वयं होती है, उसी प्रकार तात्त्विक व्यवस्थाके आधीन उसे इस विश्व में, बिना किसीके कुछ किये, सब कुछ सहज रूपसे स्वतः होता दिखाई देता है । यही है उसकी उस आभ्यन्तर दृष्टिका उद्बोधन जिसका उल्लेख कि प्रथम अधिकारमें किया गया है । यही है तत्त्व दृष्टिकी उपलब्धि, समीचीन दृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि | तत्त्वोन्मुखी अन्तरंग पुरुषार्थं ही इस लब्धिका स्वरूप है, इसलिये यह तत्त्वोपलब्धिका साक्षात् हेतु है, जबकि अन्य चार लब्धियां उसकी साक्षात् हेतु न होकर परम्परा हेतु हैं । प्रधान पुरुषार्थ होनेके कारण पांचों लब्धियोंमें यह सर्व - प्रधान है । क्षयोपशम-लब्धि के द्वारा केवल तत्त्वोंका बौद्धिक निर्णय किया गया था जहां आकर वह हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हो जाता है, जिसके कारण व्यक्ति व्यवहार भूमिपर भी तदनुसार ही वर्तन करनेका प्रयत्न करने लगता है । विशुद्धि-लब्धि के द्वारा उसे आत्मदोष और पर - गुण दर्शन होने लगता है, जिसके कारण वह पश्चात्ताप प्रायश्चित्त आदिके द्वारा आत्म-शोधन करने लगता है । देशनालब्धिमें आकर उसे गुरुकी अन्तःप्रेरणा प्राप्त हो जाती है, जिसके कारण उसके मन बुद्धि आदिका आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है । तत्फलस्वरूप उसे आत्मोत्कर्षकी अनुभूति होती है । इतनी कुछ भूमिका बन जानेके पश्चात् जब वह 'करण लब्धि' में प्रवेश पाता है तो अपने चित्तकी वृत्तियोंको बाहर से समेटकर उसी प्रकार भीतरकी ओर खींच लेता है जिस प्रकार कि कछुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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