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३१-पंच लब्धि
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रहा हूं वह बुद्धिमें नहीं हृदयमें स्थित है, उपदेशमें नहीं, आदेश में स्थित है । उसका उपदेश मुखसे न होकर आंखोंसे होता है ।
आधुनिक भाषा में हम इसे हिप्नोटिज्म कह सकते हैं। गुरु जब शिष्यकी आंखों में आंखें डालकर देखता है और उसी समय शिष्य भी जब गुरुकी आंखोंमें आंखें डालकर देखता है तो माता तथा शिशुकी भांति दोनोंमें एकत्व स्थापित हो जाता है। आंखों के माध्यम से गुरु अपने शक्तिशाली हार्दिक स्पन्दको अथवा अन्तःप्रेरणाको शिष्य हृदयमें प्रवेश करा देता है, जिसके कारण एक क्षण में शिष्य के मन, बुद्धि, अहंकार तथा चित्तका आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है । उसके अध्ययन श्रवण मनन चिन्तन आदिकी दिशा सर्वथा भीतरकी ओर उन्मुख हो जाती है । बाह्य जगत् मानो उसकी दृष्टिसे ओझल हो जाता है । इस विषय में इससे अधिक कहा जाना सम्भव नहीं । यद्यपि दीक्षाका यह स्वरूप शास्त्रों में निबद्ध नहीं है परन्तु यह सत्य है, जिसकी प्रामाणिकता प्रायोग्य नामक चतुर्थ लब्धिसे सिद्ध की जा सकती है ।
मैं जानता हूं कि यह बात आपके लिये सर्वथा नई है, और इसलिये आपको मेरी बातपर विश्वास नहीं आयेगा, न ही मैं विश्वास करनेके लिये आपसे कोई आग्रह करूंगा । तथापि इसका उल्लेख किये बिना अगली लब्धियोंके साथ संगति बैठाना क्योंकि मेरी दृष्टिमें सम्भव नहीं है इसलिये मैंने यहां उसका संकेत मात्र किया है । ' आपसे प्रार्थना है कि इसे बालप्रलाप मात्र समझकर छोड़ देना और इस विषय में जो कुछ भी आपकी धारणा है, उसे ही
प्रमाण करना ।
६. प्रायोग्य-लब्धि
एक क्षण में कर्मोंको स्थितिका ७० कोड़ाकोड़ोसे घटकर एक कोड़ाकोड़ी सागर से भी कम रह जाना 'प्रायोग्य लब्धि' का स्वरूप
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