SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१-पंच लब्धि देता रहता है, और विशुद्धि-लब्धिके द्वारा आत्म-शोधन करता रहता है। फलस्वरूप परिणाम-विशुद्धिमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते रहनेके कारण उसका अभिमान धीरे-धीरे इतना मन्द पड़ जाता है कि उसे गुरु-चरणों में आत्म-समर्पण करनेका भाव जाग्रत हो जाता है। दूसरी ओर इस जगत्में उसे सर्वत्र स्वार्थ ही स्वार्थ नाचता दिखाई देने लगता है जिसके कारण उसे इसके प्रति संवेग हो जाता है, अर्थात् इसको हर वस्तुसे उसे डर लगने लगता है। इस भवसे अपनी रक्षा करने के लिये वह गुरुका अन्वेषण करता है। गुरु कहीं दूर नहीं थे, उसके पास ही बैठे थे, परन्तु अभिमानसे आँखें मुंदी होनेके कारण उसे दीख नहीं रहे थे। गुरु की प्राप्ति कठिन नहीं थी, शिष्यत्वकी प्राप्ति ही कठिन थी। अभिमान गलित हो जानेसे ज्यों ही उसमें शिष्यत्वका उदय हुआ त्यों ही उसे निकटमें स्थित गुरुके दर्शन हो गए। वह तुरत गुरुके चरणोंमें लोट जाता है। एक क्षणमें उसका मर्वस्व गुरु का हो जाता है। गुरुके अतिरिक्त उपको अपनी कोई सत्ता नहीं रह जाती। गुरु-आज्ञाका पालन करनेके अतिरिक्त इस जगत्में अब उसका अन्य कोई भी कर्तव्य नहीं रह जाता। गुरु उचित आज्ञा दे रहे हैं या अनुचित यह सब कुछ सोचने की अब उसे कोई आवश्यकता नहीं है। उसे अब उपदेश की नहीं आदेश की अपेक्षा है। तर्क बुद्धि विराम पा चुकी है। गुरुका आदेश होनेपर वह भूखा रह सकता है, कुएं में छलांग लगा सकता है, अग्निमें कूद सकता है. अपने हाथसे अपना सर काट सकता है। बस यही है उसका शिष्यत्व। यहां तर्कके लिये कोई स्थान नहीं है। बस आज्ञा-पालन, आज्ञा-पालन, आज्ञा-पालन, और कुछ नहीं। गुरुको महिमा अपार है जिसे हृदय ही समझ सकता है तर्क नहीं । उसकी महिमा उपदेश देने में निबद्ध नहीं है क्योंकि वह शास्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy