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१-अध्यात्म खण्ड
मंचपर इतना विशाल जगत नृत्य कर रहा है कि उसका ओर छोर पाना कठिन है । इन्द्रिय-पथमें आने वाला यह सकल बाह्य-जगत एक रेणुकी भाँति उसके एक कोनेमें पड़ा दिखाई भी नहीं देता है।
चिर-परिचित इन्द्रियके राज्यको छोड़कर एक बार केवल एक बार, इसमें प्रवेश कर । तू चकित रह जायेगा, सारा रहस्य समझ जायेगा। इसे न जाननेके कारण ही तू परिस्थितियोंका दास बना हुआ है, और दास होकर भी अपनेको स्वतन्त्र समझ रहा है। मत घबरा यह तेरा अपना जीवन है। जिस जीवनमें तू रह रहा है वह तेरा बाह्य जीवन है और चित्तके नामसे जिसका उल्लेख मैं कर रहा हूँ वह तेरा आभ्यन्तर जीवन है । इन्द्रिय-पथमें आनेके कारण बाह्य-जीवन हो आजतक तेरे परिचयमें आया है। इन्द्रियों से अतीत होने के कारण यह आभ्यन्तर जीवन न तो आजतक तेरे परिचय में आया है, और न हुने इसे जाननेका प्रयत्न ही किया है। प्रयत्न करता भी कैसे, परिस्थितियाँ तुझे अपनी उदर-पूर्तिके अतिरिक्त अन्य प्रयत्न करनेके लिए अवकाश ही कब देती हैं ? इसीलिए तो तुझे दास, लाचार, दीन तथा हीन कह रहा हूँ।
एक बार केवल एक बार अपने इस आभ्यन्तर-जीवनमें प्रवेश कर। तब इस बाह्य-जीवनका तेरे लिये कोई मूल्य नहीं रह जायेगा। कांचके टुकड़ोंमें से किसी एक चमकदार कांच खण्डको हाथमें लेकर ही तू सन्तुष्ट बना हुआ है। रत्नके हस्तगत हो जानेपर तू अन्य धुधले कांच खण्डोंकी भाँति इसे भी छोड़ देगा। वह इसकी अपेक्षा अधिक सत्य है। उसके समक्ष यह बाह्य-जीवन जिसे तू सत्य समझ रहा है, वास्तवमें असत्य है, भ्रान्त है। इसकी सत्यता केवल इसलिये भास रही है कि इन्द्रियोंमें इसके अतिरिक्त अन्य कुछ देखनेकी शक्ति नहीं है। सागरको रत्नाकर कहा गया है, परन्तु उसका वह रत्नाकरत्व उसमें कहाँ स्थित है ? इन्द्रियोंके द्वारा तो केवल उसका 'उदधि' वाला रूप ही सत्य है, रत्नाकर वाला रूप
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