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________________ १-अध्यात्म खण्ड ये कुछ तर्क हैं उनके, जिनको अन्तर्दृष्टि प्राप्त नहीं हुई है। इन्हें हम सर्वथा मिथ्या भी नहीं कह सकते, क्योंकि ऐन्द्रिय जगतमें इससे ऊपर और है ही क्या ? किसी अन्यसे सुनकर या. पढ़कर उक्त कारिकाका पाठ करने वालोंको वह दृष्टि प्राप्त हो गयी हो, ऐसा भी नहीं है। जहाँ उस कारिकाका वाच्य अर्थ स्थित है वहाँ प्रवेश किये बिना, केवल कारिकाका पाठ कर देने मात्रसे अपनेको अन्तदृष्टि-सम्पन्न समझ लेना अपनी आँखमें स्वयं धूल झोंकना है। शब्द भी उसी प्रकार ऐन्द्रिय-जगतका पदार्थ है जिस प्रकार कि विषयभोग तथा धन । शब्दका भी भोग होता है और सम्भवतः विषयभोगसे अधिक । विषय-भोगकी परिधि केवल एक व्यक्ति तक सीमित है जबकि शब्द-भोगकी परिधि हजारों तथा लाखों व्यक्तियोंके भोगको अपने भीतर समेट लेती है। विषय-भोगसे धनका लोभ उत्पन्न होता है और शब्द-भोगसे प्रशंसा सुननेका लोभ । दोनोंमें कोई अन्तर नहीं। केवल वस्त्र बदल लेनेसे व्यक्ति नहीं बदलता। लोभ नये वेशमें रंग-मंचपर आया है, यह बात अन्तर्दृष्टि वाला ही जान सकता है। वह जानता है इसलिये बचता है, जो नहीं जानता वह बचता भी नहीं । धन तथा तज्जनित भोग जिस प्रकार व्यक्तिके साथ न जाकर यहीं रह जाता है, उसी प्रकार शब्द तथा तज्जनित प्रशंसा भी व्यक्तिके साथ न जाकर यहीं रह जाती है । हे भव्य ! हे मुमुक्षु ! समस्त गह्य प्रपंचोंसे हटकर स्वयं अपने भीतर देख, वहाँ जहाँ कि उक्त कारिकाका अखण्ड-पाठ नित्य चल रहा है और चलता रहेगा, उस समयतक जबतक कि उसका अर्थ हस्तगत नहीं हो जाता । हे महापुण्डरीक ! अपनी महत्ता को देख, क्षुद्र मत बन । क्या दासत्व तुझे अच्छा लगता है ? यदि नहीं तो स्वतन्त्रताके लिये प्रयास क्यों नहीं करता ? ओह ! समझा, तुझे अपने दासत्वकी प्रतीति ही कब है ? होती तो एक ही झटकेमें सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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