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________________ २-कर्म खण्ड बदलता रहता है। यही कारण है कि जबतक अहं कल्पनाके द्वारा 'अहं' की उपासनामें संलग्न रहता है अर्थात् 'इदं' को अहंके आकारका कल्पित करके उसका ध्यान करने में मग्न रहता है तब तक उसके साथ एकाकार होनेके कारण वह स्थिर तथा शान्त रहता है, बदलता नहीं है। परन्तु जब उसके समक्ष उपस्थित यह इदं विषयाकार हो जाता है तो उसके साथ तल्लोन होनेके कारण 'अहं' भी ज्ञानाकार न रहकर विषयाकार बन जाता है। क्योंकि 'इद' का यह रूप एक-एक आकारको छोड़कर अन्य-अन्य आकारको धारण करता हुआ बराबर आगेकी ओर बढ़ता रहता है, इसलिये उसके साथ तन्मय होनेके कारण न चाहते हुए भी 'अहं' को धावमान अथवा क्षुब्ध होना पड़ता है। जिस प्रकार नदीकी किसी एक तरंगको देखनेवाली दृष्टि तरंगके साथ आगे-आगे चली जाती है, इसी प्रकार 'इदं' के साथ बन्धा हुआ 'अहं' भो उसके साथ आगे-आगेको बहने लगता है। बस यही है उसका बन्धन । ___ बाह्य हो या आभ्यन्तर इस 'इदं' में स्वामित्व बुद्धि होनेपर चित्तको इसी प्रकार उसका अनुसरण करना पड़ता है जिस प्रकार कि गायको गलेमें बन्धी हुई रस्सीका । देखिये यह मेरी घड़ो है, इसके टूटने, फूटने अथवा बिगड़ जानेपर मेरा चित्त भी टूटने, फूटने तथा बिगड़ने लगता है। यदि कोई इसे चुरा कर ले जाने लगता है तो मेरा चित्त भी उसके साथ बन्धा हुआ इसके पीछे-पीछे चलने लगता है। यदि यह घड़ी केवल घड़ी हो हुई होती, परन्तु 'मेरी' न हुई होती तो इसके टूटने, फूटने, बिगड़ने अथवा चुराई जानेपर मेरे चित्तमें इस प्रकारकी प्रतिक्रिया न हुई होती। इससे सिद्ध होता है कि चित्त 'इदं' के साथ बन्धा हुआ है। तत्त्वतः वह साक्षात् रूपसे इसके साथ बन्धा हुआ नहीं है, परम्परा रूपसे बधा हुआ है। चित्त अहंकारके साथ बन्धा है, अहंकार स्वामित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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