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२--कर्म खण्ड
यद्यपि परार्थ तथा परमार्थमें भी शीघ्र सफल होने की इच्छा वाला स्वार्थं अवश्य होता है, परन्तु फलभोगकी आकांक्षा न होनेके कारण वह स्वार्थ स्वार्थं नहीं कहलाता। इसलिये बाहरमें कर्म करते हुए भी भीतर में वह कुछ नहीं करता । अध्यात्म मार्ग में क्योंकि भीतर ही प्रधान है बाहर नहीं, इसलिये उसे अकर्ता तथा उसके कर्मको अकर्म माना गया है ।
त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते, नेति प्रतीमो वयम् । ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुरुते, कर्मेति जानाति कः ॥
इसका यह अर्थ नहीं कि अपने कर्मका फल वह सर्वथा नहीं भोगता अथवा उसके द्वारा प्राप्त विषयका वह सर्वथा सेवन नहीं करता । वह उसका सेवन अवश्य करता है परन्तु भोगविषयक लालसा तथा आसक्ति न होने के कारण बाहरमें उसे सेवता हुआ भी वह भीतर में उसे नहीं सेवता । विपरीत इसके भोगासक्तिवाले व्यक्तिका चित्त बाहरमें उसका सेवन न करते हुए भी कल्पनाओं के द्वारा भीतरमें उसका सेवन करता रहता है ।
४. समन्वय
ज्ञातृत्व, कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व, ये तीनों ही कर्म सकाम भी होते हैं और निष्काम भी । व्यवहार भूमिपर इनके विषय में जो कुछ भी प्रसिद्ध है अथवा दृष्ट, श्रुत तथा परिचित है वह सब वास्तव में सकाम है, निष्काम नहीं । हृदय भूमिमें प्रवेश किये बिना निष्काम पक्षका ग्रहण सम्भव नहीं । इसलिये जब भी कभी कोई वक्ता निष्काम पक्षके विषयमें कुछ कहने अथवा समझानेका प्रयत्न करता है तब उसके अभिप्रायको स्पर्श करनेमें असमर्थ होनेके कारण अथवा वह विषय अदृष्ट, अश्रुत तथा अननुभूत होनेके कारण श्रोताके समक्ष सकाम पक्ष हो उपस्थित हो जाता है । ऐसी स्थिति में निष्काम कर्मके विषयमें शंकायें हो जाना स्वाभाविक है ।
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