SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४-कामना १३५ माने जाते हैं तदपि सूक्ष्म दृष्टि से देखनेपर इन सबके अर्थ उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हुए बाहरसे भीतरको ओर चले जाते हैं। पूर्व पूर्ववर्ती कार्य है और उत्तर-उत्तरवर्ती उसका कारण है। इन सबकी पृष्ठभूमिमें सुखानुभूतिकी वह स्मृति बैठी रहती है जो कि अपने विषयके भोगाभ्यास द्वारा उत्पन्न संस्कारके रूप में चित्तके अक्षयकोषमें पड़ी हुई है। वह संस्कार ही अन्तिम कारण है। इस संस्कारके कारण चित्तपर जो स्मृतिका रंग चढ़ गया है वह 'वासना' शब्दका वाच्य है। संस्कारके कोषमें से निकलकर वह वासना जब 'इदं' का रूप धारण कर लेती है और चित्तके समक्ष आ उपस्थित होती है तब वह 'राग' कहलाती है। यह राग जब बुद्धिमें प्रवेश करके विषय-प्राप्तिके लिये उसमें चुटकियां भरने लगता है तब 'कामना' शब्दका वाच्य बन जाता है। यह कामना ही जब अहंकारकी भूमिमें आकर उसे उतावला करनेके लिये प्रेरित करने लगती है तब 'आकांक्षा' कहलाती है। यह आकांक्षा ही जब मनमें प्रवेश पाकर उसे इतना बेचैन कर देती है कि वह बहिर्करणको विषय प्राप्तिके प्रति नियोजित करनेमें एक क्षणकी भी प्रतीक्षा सहन नहीं कर सकता तब 'इच्छा' कही जाती है। किसी स्वादिष्ट पदार्थको देखकर जिस प्रकार लम्पट जीवोंके मुखसे राल टपकने लगती है, उसी प्रकार जब इन्द्रियां उस विषयके प्रति लालायित हो उठती हैं तब इच्छा ही 'लालसा' कहलाती है। विषयके प्राप्त हो जानेपर जब चित्त उसके साथ इस प्रकार तन्मय हो जाता है कि 'अहं' का लोप होकर केवल 'इदं' शेष रह जाये, तब लालसा 'प्रासक्ति' का रूप धारण कर लेती है । इस आसक्तिके फलस्वरूप जब मनमें किसी एक विषयको निरन्तर पुनः पुनः प्राप्त करनेकी इच्छा होने लगती है तब वह तृष्णा' कहलाती है। वासनाकी सूक्ष्म भूमिसे इच्छाकी स्थूल भूमितक आनेके क्रममें कामना क्योंकि मध्यवर्ती है, इसलिये यहां उसी शब्दका प्रयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy