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________________ २०-योग-विधान १०९ विभागमें हो जाता है, क्योंकि इनके द्वारा ग्रहण किये गये अथवा जाने गये विषयमें ही उसकी मनन चिन्तन रूप प्रवृत्ति होती है। ये तीनों ही करण दो-दो रूपमें देखे जा सकते हैं, द्रव्यरूपमें तथा भावरूपमें। परमाणुओंसे निर्मित नेत्रगोलक आदि द्रव्यकरण हैं और इनके प्रति चेतना-शक्तिका ज्ञानात्मक अथवा क्रियात्मक जो उपयुक्तिकरण होता है वह भावकरण है। द्रव्यकरण तथा भावकरण ये दोनों ही मन, वचन तथा कायके भेदसे तीन-तीन प्रकारके हैंद्रव्यमन, द्रव्यवचन, द्रव्यकाय और भावमन, भाववचन, भावकाय । इन तीनोंका कथन पृथक्-पृथक् करता हूँ। २. मन मन कहनेसे ज्ञानेन्द्रियों सहित पूरे अन्तष्करणका ग्रहण होता है । इसालये मनसे पहले ज्ञानेन्द्रियोंका विचार करते हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ दो प्रकारको मानी गयी हैं-द्रव्येन्द्रियाँ और भावेन्द्रियाँ। परमाणुओंसे निर्मित नेत्रगोलक आदि द्रव्येन्द्रियाँ हैं और इनकी पृष्ठभूमिमें अवस्थित देखने सुनने आदिकी चेतना शक्ति भावेन्द्रिय है, जिसका उल्लेख इससे पहलेवाले अधिकारमें ज्ञानोपयोगके नामसे किया गया है। मन भी दो प्रकारका हे-द्रव्यमन और भावमन । इस शरीरके भीतर हृदयस्थानपर सूक्ष्म प्राणवाहिनी नाड़ियोंकी एक अष्टदलकमलके आकारवाली ग्रन्थि है। योगदर्शनके आचार्य इसे अनाहतचक्र कहते हैं । यही जैनाचार्योंका अभिप्रेत द्रव्यमन है । भावेन्द्रियकी भांति इसकी पृष्ठभूमिमें स्थित संकल्प विकल्प करनेकी अथवा मनन करनेकी वह चेतना शक्ति भावमनका स्वरूप है जिसका विशद विवेचन कर्म-करणवाले अधिकार में किया गया है। परमाणुओंसे निर्मित होनेके कारण अष्टदल-कमलवाला उक्त चक्र द्रव्यमन है और चेतना का उपयोग होनेके कारण संकल्पन अथवा मनन शक्ति भावमन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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