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________________ 88 जैन धर्म और जीवन-मूल्य वाली है। पर्यावरण की शुद्धता के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार के धर्म की बड़ी सार्थकता है। स्वभाव का: वस्तु के स्वभाव को धर्म कहना बड़ी असाम्प्रदायिक घोषणा है धर्म के सम्बन्ध में । कोई जाति, कोई व्यक्ति, किसी शास्त्र, किसी देश या विचारधारा का इस परिभाषा में कोई बन्धन नहीं है । विश्व की जितनी वस्तुएं हैं, उनके मूल स्वभाव को जान लेना, उन्हें अपने-अपने स्वभाव में ही रहने देना सबसे बड़ा धर्म है । हमारे शरीर का स्वभाव है-जन्म लेना, वृद्धि करना, और समय आने पर नष्ट हो जाना इत्यादि । किन्तु जब हम इससे भिन्न शरीर से अपेक्षा करने लगते हैं तो हम अधर्म की अोर गमन करते हैं । शरीर को अधिक सुख देकर उसे अमर बनाना चाहते हैं । बाहरी प्रसाधनों से सजाकर उसकी भीतरी प्रशुचिता से मुख मोड़ना चाहते हैं । अपने शरीर के सुख के लिए दूसरों के शरीर को समय से पहले नष्ट कर देना चाहते हैं तो इससे शोषण पनपता है, क्रूरता जन्म लेती है, विलासता बढ़ती है और हम प्रधार्मिक हो जाते हैं। जो हमने शरीर के स्वभाव को समझने में भूल की वही प्रकृति को समझने में करते हैं । प्रकृति के प्राणतत्व का संवेदन हमने अपनी प्रात्मा में नहीं किया । हम यह नहीं जान सके कि वृक्ष हमसे अधिक करुणावान् एवं परोपकारी हैं । हमने धरती की दे धड़कने नहीं सुनीं जो उसका खनन करते समय उससे निकलती हैं। प्रकृति का स्वभाव जीवन्त सुलभ संतुलन बनाये रखने का है, उसे हम अनदेखा कर गये। हमने प्रकृति को केवल वस्तु मान लिया, लेकिन वस्तु का स्वभाव क्या है, यह जानने की हमने कभी कोशिश नहीं की। परिणामस्वरूप हमने अपने क्षणिक सुख पौर अमर्यादित लालच की तृप्ति के लिए प्रकृति को रोंद डाला। उसे क्षत-विक्षत कर दिया। उसका परिणाम हमारे सामने है। जैसे मनुष्य जब अपने स्वभाव को खो देता है तब वह क्रोध करता है, विनाश की गतिविधियों में लिप्त होता है । वैसे ही स्वभाव से रहित की गयी प्रकृति आज अनेक समस्याएं पैदा कर रही है। शरीरं, प्रकृति एवं अन्य भौतिक वस्तुओं के स्वाभाव की जानकारी के साथ यदि व्यक्ति प्रात्मा के स्वभाव को भी जानने का प्रयत्न करे तो वस्तुनों को संग्रह करने एवं उन में प्रासक्ति की भावना धीरे-धीरे कम हो जायेगी। क्योंकि ये सब वृत्तियां भयभीत, असुरक्षित, अज्ञानी व्यक्ति भी निर्बलता के कारण उत्पन्न हुई हैं । जब मानव को यह पता चल जाय कि उसकी प्रात्मा स्वयं सभी शक्तियों से युक्त है, उसे बाहर की कोई शक्ति सहारा नहीं दे सकती और न ही प्रात्मा को कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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